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________________ २२४ मात्मानुशासन मेरी इस प्रकार भावना होनी चाहिये और तदनुसार शुभ, पुण्य, सुख इनमें कार्यकारण तथा भेदाभेदका विचार करके प्रवर्तना चाहिये । इसमें भी आगेका भावनाका क्रमःतत्राप्याचं परित्याज्यं शेषौ न स्तः स्वतः स्वयम् । शुभं च शुद्धे त्यक्त्वान्ते प्रामोति परमं पदम् ॥२४॥ अर्थ:-अशुभ, पाप व दुःख ये तीनो हेय होनेके कारण छोडदेने चाहिये। परंतु इन तीनों से अशुभ, यह योग होनेसे पापकर्मका तथा पाप कर्माधीन प्राप्त होनेवाले दुःखका कारण है। इसलिये सवसे प्रथम अशुभोपयोग ही छोडो । कारण न रहा तो आगेके पाप व दुःख ये दोनो कार्य अपने आप ही नहीं रहेंगे। - इस प्रकार अहितकारी तीनोंको छोडनेपर हितकारी तीनोंका विचार करना चाहिये । शुभ, पुण्य व सुख ये तीनो हितकारी हैं। इनमें भी शुभ यह योग होनेसे पुण्य कर्मबंधका कारण है । पुण्यकर्म इसका कार्य है । पुण्यका भी उत्तर कार्य सुख है। इसलिये शुभ, यह पुण्यका साक्षात् तथा सुखका परंपरया कारण है । अशुभ, दुःखका कारण होनेसे प्रथम ही छोडदिया गया। शुभ, यह सुखका कारण है परंतु कौनसे सुखका ? संसारी सुखका । इसलिये वास्तविक दृष्ट्या यह भी संसारका कारण होनेसे छोडना ही चाहिये। बस, यहां भी शुभ छूटा कि इसके दोनो कार्य भी अपने आप हट जाते हैं । इस समय अंतमें केवल शुद्ध या पूर्ण वीतराग-दशा रह जाती है। यह दशा प्राप्त हुई कि परम धाम प्राप्त होता है। आत्मा ही नहीं है तो मुक्त कौन होगा ! अथवा है तो भी वह मुक्त किससे हो ? अमूर्त आत्माको बंब ही संभव नहीं है। कदाचित् बन्ध हुआ भी तो फिर बन्ध ही रहेगा। उसके छूटनका कोई संभव १ इस श्लोकका अथ संस्कृत टीकाम उतना स्पष्ट नहीं लिखा जितना कि टोडरमल. जीने अच्छा लिखा है।
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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