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________________ हिंदी-भाव सहित ( मोहका स्वरूप)। रागद्वेषका नाश या उपशम कैसे हो ?मोहबीजादतिद्वेषौ बीजान्मूलाङ्कुराविव । तस्माज्ज्ञानाग्निना दाह्यं तदेतौ निर्दिधक्षुणा ॥ १८२ ॥ अर्थः-रागद्वेषकी उत्पत्ति मोह-कमेसे होती है; अर्थात् , राग. द्वेषकी उत्पत्तिकेलिये मोहकर्म बीजके समान है । जिस प्रकार कि वृक्षके अंकुर व जडकी उत्पत्ति उसके बीजसे होती है। जैसे बीज अग्निसे जलसकता है, वैसे ही इस मोह-बीजके जलानेवाला अग्नि भी कोई होना चाहिये । मोह, अज्ञान व विपरीत ज्ञान उत्पन्न करनेवाला है। इसलिये इसको जलाडालनेवाला अमि सम्यग्ज्ञान हो सकता है। जब कि मोह ही अनर्थकारी रागद्वेषका निदान कारण है तो उसे ज्ञानामिसे भस्म करदेना चाहिये । क्योंकि, रागद्वेष अनर्थकारी हैं, इसलिये उन्हें नष्ट करनेका तो विचार साधुओंका रहता ही है । और भी देखो: पुराणो ग्रहदोषोत्थो गम्भीरः सगतिः सरुक् । त्यागजात्यादिना मोहवणः शुध्यति रोहति ॥ १८३ ॥ अर्थः-मोह ऐसा दुःखदायक है जैसा कि एक फोडा । अथवा फोडेसे भी अधिक । देखिये, फोडा जो बहुत दिनोंका हो जाता है वह अधिक पीडा देने लगता है । मोहकी तो कुछ मर्यादा ही नहीं है कि अमुक समय उत्पन्न हुआ था। मोह अनादिकालीन है । तो फिर इसकी विषमता व दुःखका क्या ठिकाना लग सकता है ? इसीलिये फोडाकी वेदना होते हुए भी जीवोंको सचेतता बनी रहती है परंतु इस मोहरूप फोडेने जीवोंकी सावधानीतक नष्ट करदी है। इतनी बडी वेदना इस मोहसे प्राप्त होरही है। ___ फोडे आदि रोगोंकी उत्पत्तिमें विरोधी ग्रह भी निमित्त हो जाया करते हैं। इसी प्रकार मोहकी उत्पत्तिमें परिग्रहकी आसक्तता कारण हो रही है। यदि परिग्रहोंमें आसक्ति न होती तो मोहकी उत्पत्ति व वृद्धि भी कभी नहीं होती। अज्ञान व रागद्वेषादिक उपजना सव मोहका कार्य है व मोह कारण है। २४
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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