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________________ हिंदी-भाव सहित (तत्त्वोंका स्वरूप)। १७७ सकती है। जो कोई भी तत्त्व है वह सदासे है व सदा ही रहेगा। इसीलिये उसे आद्यन्तवर्जित कहते हैं। जैसा एकका स्वरूप वैसा ही यावत् पदार्थोंका स्वरूप समझना चाहिये । अर्थात्, किसी भी एक पदार्थको देखनेसे वह ऐसा ही दीखेगा; और इसीलिये यही सर्व विश्वके तत्त्वोंका स्वरूप समझना चाहिये ।। भावार्थ:-(१) सांख्यमतके लोग तत्त्वोंका स्वरूप सर्वथा नित्य मानते हैं । (२) बौद्धदर्शनवाले तत्त्वोंका स्वरूप क्षणाविनाशी मानते हैं । ( ३ ) ज्ञानाद्वैतवादी वेदान्तादि दर्शनोंमें केवल ज्ञान ही ज्ञान माना गया है। बाह्य वस्तुओंका अस्तित्व उन्हें मान्य नहीं है । वे कहते हैं कि जो कुछ दीख पडता है वह सब मनकी भावना है। वास्तवमें बाह्य कोई पदार्थ नहीं है । जब किसी जीवका किसी एक चीजकी तरफ उपयोग नहीं लग रहा है तब उस चीजकी कल्पना भी नहीं होती। और इसीलिये उस समय उसके माननेमें भी कोई प्रमाण नहीं है। यह हुआ तीसरा पक्ष । ( ४ ) चौथा ऐसा पक्ष है कि बाहिर भीतर कुछ है ही नहीं । जिस किसी बातकी तरफ विचार करने लगते हैं उसीमें अनेक आशंकाएं उठने लगती हैं । वस्तुओंका स्वरूप न तो परस्परमें अभिन्न ही सिद्ध होता है और न भिन्न ही सिद्ध होता है । वस्तुओंका कैसा भी स्वरूप माना जाय परंतु सभीमें दोष व अपवादपना दीख पडता है । कोई भी एक स्वरूप निर्दोष व शाश्वतिक दीख नहीं पड़ता है। इसीलिये वस्तु कुछ है ही नहीं यह मानना उचित जान पडता है । इस प्रकार तत्त्वोंके माननेमें स्थूल भेद रखनेबाले ये चार मत हैं । चौथेका नाम तत्त्वोपप्लववादी या अभाववादी है ! (१) श्लोकमें इन चारो पक्षोंका उल्लेख करके यह कहा है कि इन चारोंमेंसे किसी भी एकका कहना उचित नहीं जान पडता। क्योंकि, ऊपर कहा हुआ एक भी प्रकार अनुभवसिद्ध नहीं होता। जब देखते हैं तो वस्तुओंका स्वरूप सदा एकसा या टिकाऊपना नहीं दीख
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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