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________________ हिंदी-भाव सहित (विषयोंमें न फसनेका उपाय)। १७३ किसी भी बुरे कर्मकी आदत या संबंध थोडासा भी परिपाकमें दुःख देनेवाला होता है । वह इसीलिये कि, थोडीसी आदत भी बढते बढते अपने अंतिम ध्येयतक मनुष्यको कभी न कभी पहुचा देती है। इसीलिये यदि तुझे अपनी पापकर्मोंसे रक्षा करनी है तो तू इन भोजनादि तुच्छ विषयोंमें मोहित मत हो । सदा सावधान रह । तभी तू अपनी रक्षा कर सकेगा । जिसको अपना कोई बडासा कार्य सिद्ध करना होता है वह अपने कार्यमें विघ्न डालनेवाले बाहिरी, भीतरी सभी शत्रुओंसे बचता रहता है। भोजनादि विषयों में प्रमादी न बननेका उपायःअनेकान्तात्मार्थप्रसवफलभारातिविनते, वचःपर्णाकीर्णे विपुलनयशाखाशतयुते । समुत्तुङ्गे सम्यक्प्रततमतिमूले प्रतिदिनं, श्रुतस्कन्धे धीमान् रमयतु मनो मर्कटममुम् ॥१७०॥ अर्थः-वंदरोंका स्वभाव चंचल होता है । पर वे फल-फूलोंसे हरे भरे वृक्षोंपर रमजाते हैं। वैसा उन्हें कोई वृक्ष यदि मिल जाता है तो फिर वे वहांसे हटते नहीं हैं। मन, यह एक बंदरके तुल्य है, आति चंचल है । फल पत्ते व डालियोंसे भरा हुआ वृक्ष यदि इसकेलिये हो तो उसपर यह रम सकता है। फिर वहांसे कहीं भी नहीं हटेगा। यह सोच विचारकर संत पुरुषोंने इस मनको रमने ये ग्य वृक्ष ढूंढ निकाला। वह क्या ? शास्त्र । मन रमनेकेलिये शास्त्र ही सबसे अच्छा वृक्ष है । इसपर रमानेसे कुकर्म होनेसे भी रुकते हैं और मनका विनोद भी बराबर सधता है । इस शास्त्र वृक्षमें वृक्षोंकीसी सभी चीजें मौजूद हैं। देखोः इस शास्त्रमें अनेकान्तस्वरूप जीवादि पदार्थ भरे हुए हैं । ये ही इस श्रुतस्कन्ध या शास्त्र-वृक्षके फलफूल हैं, कि जिनके भारसे यह वृक्ष खूव ही नीचेकी तरफ झुक रहा है। अनेक युक्ति प्रत्युक्तियोंसे पूर्ण जो संस्कृत प्राकृत वचन हैं वे इस श्रुतस्कन्धके पत्ते हैं । वे भी इसमें
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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