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________________ १५६ _आत्मानुशासन. अनुमान भी नहीं किया जा सकता है । यद्यपि दीनता व अभिमानके साथ परमाणु व आकाशके विस्तारकी तुलना ठीक ठीक बैठती नहीं है तो भी तुच्छता व बढप्पनकी सीमा दिखानेकेलिये इधर परमाणुको उधर आकाशको लेकर अतिशय प्रगट किया है । आत्मचि - जो न हो जाता है वह सभी प्रकार से असमर्थ बन जाता है और जो अभिमानी या मनस्वी होता है वह हर कामको पूरा कर सकता है । धर्म प्राप्त करनेका अर्थ क्या है ? यही कि, आत्मा वास्तविक किसी बातका गरजू नहीं है। पर लोग इस बातको भूल रहे हैं। लोग अपने को जहां जितना पराधीन समझते हैं वहां वे उतने ही अधर्मी हैं । आत्माको जहां जितना स्वतंत्र बनाया जाता है वहां उतना ही धर्म है । जब कि सभी विषयोंको अनावश्यक समझकर तवनमें मन हो जाना है तब तो पूरा स्वावलंबन प्राप्त होनेसे पूरा ही धर्म है; परंतु जब कि उद्योग धंदा आदि करके आत्माको अपने आप निर्वाह करने के समर्थ समझना है तब भी उतना धर्म ही है। क्योंकि, आत्माको जितना जितना परतंत्र माना जाता है उतना ही उतना आत्मा कर्मबद्ध होता है और जितना जितना स्वयं समर्थ माना जाता है उतना ही उतना आत्मा कर्मसे भी मुक्त होता है । विपर्यासतद्धिका होना ही कर्मबंधनका कारण है । इसीलिये दीन, पापी व अभिमानी, धर्मात्मा मानना पडता है । क्योंकि दीन याचनाके विना अपना निर्वाह न समझकर परके अधीन होता है और अभिमानी वहां पर स्वाघीन रहकर निर्वाह करलेना सुलभ समझता है । इसीलिये यहां अभिमानका अर्थ गर्व न समझना चाहिये । I 1 याचितुगौरवं दातुर्मन्ये संक्रान्तमन्यथा । तदवस्थौ कथं स्यातामेतौ गुरुलघु तदा ॥ १५३ ॥ अर्थ : - याचना करनेवाला व दान देनेवाला, पुरुष दोनो ही समान हैं । किसीकी भी जात-पांत या लक्षण आकार भिन्न नहीं हैं । 1
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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