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________________ १५२ आत्मानुशासन. यदि उनके गुरु चाहें तो अपने शिष्योंका सुधार सहजमें करसकते हैं। कोई भी साधु हो, वह किसी न किसी संघाधिपति गुरुका शिष्य बन नेपर साधु हो पाता है । इसलिये यदि गुरुओंको साधुओंका सुधारना इष्ट हो तो सहजमें साधुमार्ग शुद्ध होसकता है और सभी साधु अपने उचित सच्चे कल्याणके साधनेवाले बन सकते हैं । परंतु गुरुओंसे भी साधुओंका सुधार होना आज कठिन होगया है । क्यों ? गुरु नमस्कारप्रिय होने लगे । जो नमस्कार, स्तुति, भक्ति करता हो उसीके वश हो जाते हैं । वे चाहें जैसा उसे स्वच्छन्द चलने देते हैं । और जो नमस्कारादि कम करता है उसे सच्चे मार्गमें रहते हुए भी बाधित करते हैं। और अपने आप मार्ग शोधकर चलना कठिन है। इस प्रकार देखनेसे मालूम होगा कि धर्ममार्गका सुधार आज कठिन होगया है । शक्तिसे धर्मकी रक्षा करनेवाले राजा व गुरु । परंतु ये दोनो ही आज धर्ममार्गके सुधारनेमें दत्तचित्त व तत्पर नहीं हैं। ऐसी अवस्थामें धर्मका हास व साधुओंके मनचाहे मार्ग बन जाना सुगम बात है । ऐसे समयमें उलटा उसीको आश्चर्य मानना चाहिये कि कोई एक दो साधु अपने मार्गपर चल रहे हों । यदि वे भी बहुत ही अच्छे आचरणके साथ रह रहे हों तो और भी अधिक आश्चर्य समझना चाहिये । पर साथ ही यह भी समझना चाहिये कि गुरुओंकी भक्ति व आज्ञाका पालन करना भी परम कर्शव्य है । देखोः एते ते मुनिमानिनः कवलिताः कान्ताकटाक्षेक्षण,रङ्गालनशरावसन्नहरिणप्रख्या भ्रमन्त्याकुलाः। संघर्तुं विषयाटवीस्थलतले स्वान् काप्यहो न क्षमा, मा ब्राजीन्मरुदाहताभ्रचपलैः संसर्गमेभिर्भवान् ॥१०॥ अर्थः-कितने ही मनुष्य किसी कारणवश या श्मशानवैराग्य होजानेपर एकाध वार साधुका वेश तो धारण करलेते हैं परंतु स्त्रियों के वक्र अवलोकनको जब सहन नहीं करसकते तब अत्यंत व्याकुल हो
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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