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________________ १२० आत्मानुशासन. 1 प्राक् प्रकाशप्रधानः स्यात् प्रदीप इव संयमी । पश्चात्तापप्रकाशाभ्यां भास्वानिव हि भासताम् ॥ १२० ॥ अर्थ:-- साधुजन जैसे संयम धारण करते हैं वैसे ही ज्ञान भी उन्हें धारण करना ही चाहिये । वैसे ही नहीं, किंतु मुख्य ज्ञानको ही धारण करना चाहिये । क्योंकि, ज्ञान के बिना चारित्रकी शोभा नहीं है तथा अकेला चारित्र कार्यकारी भी नहीं है। ज्ञान तथा चारित्रका संगम वैसा ही होना चाहिये जैसा कि अभिमें प्रताप तथा प्रकाशका संगम रहता है । ज्ञानको प्रकाश तुल्य समझना चाहिये व चारित्रको प्रताप के तुल्य । प्रताप जैसे अग्निमें चमकता हुआ अग्निको किसी भी विजातीय वस्तुसे मलिन नहीं होने देता; किंतु सर्व विजातीय लकडी वगैरह चीजों को आते ही भस्म करदेता है और अभिको शुद्ध बनाये रखता है । वैसे ही चारित्र भी आत्मामें चमकता हुआ आत्माको किसी भी विजातीय वस्तुसे मलिन नहीं होने देता; किंतु विजातीय जो कर्म-ईंधन, उसे भस्म करके आत्माको शुद्ध करदेता है । रहा ज्ञान, वह प्रकाशकी तरह प्रकाशमान रहकर सर्व पदार्थों को तथा मोक्षके मार्गको प्रकाशित करता है । साधुओं का यह चारित्र व ज्ञान यद्यपि प्रारंभकी अवस्थामें दीपकके प्रताप-प्रकाशके ही तुल्य है परंतु कालान्तर में वही सूर्यके प्रतापप्रकाशके तुल्य सर्वोत्कृष्ट प्रगट होकर भासने लगता है । किंतु वह ज्ञान - चारित्र सूर्यके तुल्य होता उसी साधुका है कि जो ज्ञानाभ्यास की मुख्यता रखता है । केवल चारित्रमें मग्न रहनेवालेको आत्मसिद्धि प्राप्त नहीं हो पाती है। १ सूर्योपमाके समय जैसे ताप व प्रकाश, दोनो गुणोंकी तुलमा चारित्र व ज्ञान गुणके साथ की है वैसे ही दीपोपमा के समय भी दोनो ही गुणोंकी तुलना होनी चाहिये । अन्तर केवल अणु महत् प्रमाणका है । इसीलिये दीपक के समय 'प्रकाशप्रधान' शब्दसे ज्ञान- गुणकी तुलना तो हो ही जाती है; किंतु चारित्रके साथ तुलना प्रताप गुणकी जो होनी चाहिये वह 'दी१' शब्दसे दीपन अर्थात् प्रताप, व 'संयमी' शब्द से संयम अर्थात् चारित्र, यह अर्थ आककिरनेसे होसकती है ।
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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