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________________ ११६ आत्मानुशासन. भगवान् तीर्थकर-तक भी इसके उदयसे बचे नहीं हैं । जब कि तीव्र कर्मका वेग आकर पडता है तब उन्हें भी दुःख भोगने पड़ते हैं, समता धारण करके समय विताना पडता है, प्रतीक्षा इस बातकी करनी पडती है कि कब यह कर्म निर्बल हो और हम मोक्षकी सिद्धि करें ? देखोः समस्तं साम्राज्यं तृणमिव परित्यज्य भगवान् , तपस्यनिर्माणः क्षुधित इव दीनः परगृहान् । किलाटद्भिक्षार्थी स्वयमलभमानोपि सुचिरं, न सोढव्यं किंवा परमिह परैः कार्यवशतः ॥११॥ अर्थ:-समय पाकर नाभि राजाके पुत्र भगवान् आदीश्वरने संपूर्ण विशाल राज्यसंपदाको तिनकेकी तरह त्यागदिया और संसारसे मुक्त होनेकी कामनासे तप करने लगे। जब भूख लगी तब मान छोडकर दीनोंकी तरह पर-घरोंमें फिरे । बहुत दिनोंतक कहीं भोजन मिला ही नहीं, तो भी तपसे भ्रष्ट नहीं हुए। किंतु तपस्याको साधते हुए चिरकालतक लाभ न होते हुए भी भिक्षाकेलिये फिरते ही रहे । उन्होंने इतना कष्ट उठाया तो भी तपको छोडा नहीं। तपकी वृद्धि करते हुए ही शरीर रक्षाकेलिये प्रयत्न किया । यदि वे चाहते कि हम विषयसुख भोगें, इतना कष्ट उठाकर तप करनेमें क्या लाभ है ? तो उनकेलिये तानो लोककी संपदा उपस्थित थी। तो भी उन्होंने तपको छोडना नहीं चाहा । तपके सामने विषयसुखको तुच्छ व हेय समझा । इसीलिये उन्होंने तपको रखकर शरीरका निर्वाह करना पसंद किया। यदि वे शरीर सुखको मुख्य समझकर विषयोंमें प्रवृत्त होते तो आत्मकल्याणसे वंचित रह जाते । परंतु उन्होंने तो आत्मकल्याणको मुख्य कार्य समझा था । इसीलिये दुस्सह कष्ट भोगनेकेलिये कायर नहीं हुए किंतु आत्मकल्याणकी सिद्धि पूर्ण की। जिन्हें जो काम पूरा करना होता है वे उसकेलिये चाहे जैसे दीर्घ दुःखोंको सहते हैं पर, मतलवको हाथसे जाने नहीं देते हैं । अपने
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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