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________________ हिंदी-भाव सहित ( शरीररक्षाका हेतु )। ११३ जब कि साधु पूर्ण विरागी होजानेके कारण तपमें रत होते हैं तो शरीरकी भोजनादिकसे रक्षा करनेकी चेष्टा क्यों करते हैं : अमी प्ररूढवैराग्यास्तनुमप्यनुपाल्य यत् । तपस्यन्ति चिरं तद्धि ज्ञातं ज्ञानस्य वैभवम् ॥११६॥ __ अर्थः-ये साधुजन ऐसे हैं कि इनमें वैराग्य ओतप्रोत भर चुका है । तो भी शरीरकी एक-दम वेपरवाह करके समाधि आदि तपमें लीन नहीं होते हैं । शरीरको भी संभालते हैं और तप भी करते हैं। इससे ऐसा समझना चाहिये कि उन साधुओंको कार्यसिद्धिकी रीति-भांति अच्छी तरह मालूम हो चुकी है । उतावला न बनना ज्ञानका ही माहात्म्य समझना चाहिये। साधुजन यद्यपि पूर्ण निश्चय इस बातका कर चुकते हैं कि शरीरादि तथा विषयभोगादिसे छुटकारा मिलनेपर ही आत्मा सुखी होसकता है; और उसका उपाय एकमात्र तप है कि जिससे शरीर तथा शरीरादिजनक कर्मोंका सर्वथा नाश होकर आत्मा ज्ञानानंद-पूर्ण व शुद्ध हो जाता है । तो भी इन कर्मोंका तथा शरीरका एक-दम नाश करनेसे असली नाश नहीं होसकता है । यदि इस विद्यमान शरीरका भोजनादि संस्कार रोकदेंनसे नाश भी करदिया जाय तो भी अन्य किसी भवमें उत्पन्न होकर शरीरके दुःख भोगने ही पडेंगे । उलटी जो इस समय कर्मोंके नाश करनेकी शक्ति, उत्साह, तथा सामग्री प्राप्त हुई है वह यों ही चली जायगी। इस जीवको तपश्चरणमें प्रवृत्त करनेकेलिये समर्थ ऐसी अध्यात्मज्ञानकी प्राप्ति तथा तपश्चरण करनेके योग्य शरीरादिकी प्राप्ति सर्वत्र नहीं होती है । तब ! इस मिली हुई संपूर्ण सुखसामग्रीको उतावले बनकर यों ही खोदेना बडी मूर्खता है । तपश्चरण या समाधिसे आत्मा असली सुखी होता है यह बात समझलेनेपर भी तप या समाधिका पूर्ण लाभ एक-दम नहीं होसकता है। समझलेना और बात है और उसको साधलेना और बात है। समझलेनेपर भी किसी १५
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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