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________________ आत्मानुशासन. भावार्थ:- मुक्तिके विना निश्चित सुख कहीं कभी किसीको नहीं मिल सकता है । और वह सुख प्राप्त करना सभीको इष्ट है । तो फिर तपके द्वारा कर्मोंका नाश करके मुक्ति सुख इस मानुष्य भवको पाकर क्यों न करलेना चाहिये ? क्योंकि, मनुष्यभवके विना तप नहीं होसकता और तपके विना कर्म नहीं जल सकते, जो कि मुक्ति होनेसे रोकनेवाले हैं। यह मनुष्यभव भी वार वार मिलनेवाला नहीं है कि अब तप न किया तो फिर किसी वार होसकेगा। यह मनुष्यभव अत्यंत ही दुर्लभ है । समुद्रमें डाली हुई सरसो कदाचित् फिर भी हाथ लग सकेगी पर, मनुष्यभव गया हुआ फिर सहज तो क्या, अति क्लेश करने पर भी जल्दी हाथ न लगेगा । और इस भवमें ऐसी कोई बात भी नहीं है कि जिसकेलिये तप छोड दिया जाय । अपवित्र-मलमूत्र रक्त मांस वगैरहका यह पिंड है । क्षुधा तृषा रोग शोक आदि दुःखोंसे पूरा कभी छूट ही नहीं पाता । इसके जीनेका क्षणभरका भी पक्का भरोसा नहीं है। चाहें जब चाहें जिसके शरीरसे चेतना निकल जाती है। असली आधार जो आयुःकर्म, वह तो किसीको जान ही नहीं पडता है कि कब खतम होनेवाला है । पर वह कर्म बना रहते हुए भी रोग वेदना शस्त्राघात विष आदि क्षुद्र कारण मिल जाने पर शरीर की स्थिरता नष्ट हो जाती है । नारकियोंतकका शरीर नियत समय पूरा होने पर छूटता है पर, मनुष्यके शरीरका कुछ भी भरोसा नहीं है । जब कि मनोरंजक पवित्र नहीं, सुखजनक नहीं और इसके नाशका भरोसा नहीं; तो फिर किसकेलिये इसमें प्रेम किया जाय और तपश्चरण द्वारा इससे प्राप्त होने वाला निराकुल निश्चल सुख प्राप्त न करलिया जाय ? इस प्रकार देखनेसे मालूम होगा कि तप करनेसे ही इसका पाना सार्थक है, नहीं तो इसका पाना दुर्लभ होकर भी निस्सार है। तप बहुत प्रकारके हैं पर, मुक्तिकी सीधी प्राप्ति समाधितपसे ही होसकती है । उसीसे साक्षात् कर्मों का नाश होसकता है । वह समाधि किसमें लगाना चाहिये और उसका फल क्या है ? वह देखोः- .
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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