SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिंदी-माव सहित ( असली उदासी)। ९९ आश्चर्यकी बात है ? उनके इस त्यागपरसे यही कहना पडता है कि वे परम विरक्त हो चुके थे । इसीलिये उन्होंने उस सारी संपदाको तिनकेकी तरह तुच्छ मानकर छोड दिया और असली आत्मसुखके रसिया बने। ऐसे सर्वोत्कृष्ट साधुओंको सिर झुकाये विना नहीं रहा जाता । उनको वार वार हमारा नमस्कार हो। विषयोंको न भोगकर छोडनेबालेकी भावना और उसका फल: अकिंचनोऽहमित्यास्स्व त्रैलोक्याधिपतिर्भवः । योगिंगम्यं तव प्रोक्तं रहस्यं परमात्मनः ॥ ११०॥ अर्थः-पर पदार्थ कभी अपना नहीं बन सकता है । पर पदार्थ इकट्ठे करनेकी भावना कितनी ही चाहें की जाय और कितने ही उपाय किये जाय, पर वे अपने निज स्वरूपमें आकर मिल नहीं सकते हैं। आत्मा आत्मा ही रहेगा और पर पर ही रहेंगे । यह वस्तुस्वभावकी स्वाभाविक गति है । आत्मा अमूर्तिक और चेतन है । दूसरे सर्व पदार्थ मूर्तिमान हैं और जड हैं । इस प्रकार जीव और वाकी कुल पदार्थ अपने अपने निरनिराले स्वभावोंको रखनेवाले जब कि माने गये हैं तो उनका एक दूसरेमें मिलजाना या एक दूसरेकी एक दूसरेसे भलाई-बुराई होना असंभव बात है। जड-चेतनका, मूर्तिमान्–अमूर्तिकका मेल होना ही कठिन है तो एक दूसरेकी वे भलाई-बुराई क्या करेंगे? दूसरी बात यह कि, आत्मामें वह आनंद भरा हुआ है कि जो जड पदार्थों में असंभव है। शरीरसे चेतना निकल जानेपर वह शरीर तुच्छ और फीका भासने लगता है । इसका कारण यही है कि शरीर जड है, उसमें आनंद या सुखकी मात्रा क्या रह सकती है ? शरीरमें रहते हुए भी जो सुखानुभव होता है वह चेतनका ही चिन्ह है, नकि जड शरीरका । क्योंकि, आनंद या सुख, ज्ञान के विना नहीं होता । वह ज्ञानका ही कार्य है, ज्ञानका ही रूपान्तर है। तो फिर जडमें वह कैसे मिल सकता है ? इसीलिये सुखकी लालसासे जड १ ' योगगम्यं ' ऐसा पाठ भी हो सकता है।
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy