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________________ हिंदी-भाव सहित (शरीरसे डरो)। एतावदेव कथितं तव संकलय्य, सर्वापदां पदमिदं जननं जनानाम् ॥ ९८॥ अर्थः-अहो, हम तुझै वार वार यह क्या कहैं कि तेने ऐसे ऐसे दुःख भोगे हैं और इस इस तरहसे भोगे हैं ? क्योंकि तेने ही तो जन्म धारण करके आजतक वे दुःख तथा शरीर भोगे और छोड छोड दिये हैं । इसलिये संक्षेपमें तुझसे इतना ही कहना वस है कि जीवोंका यह शरीर ही सर्व आपदाओंका ठिकाना है । भावार्थ, इसका संबंध जबतक है तबतक आगे भी दुःख भोगनेमें आवेंगे । इसलिये इसका संबंध और स्नेह छोडना ही तेरे लिये हितसाधक हो सकेगा। गर्भके दुःखःअन्तर्वान्तं वदनाविवरे क्षुत्तृषार्तः प्रतीच्छन् , कर्मायत्तं सुचिरमुदरावस्करे वृद्धगद्धया । . निष्पन्दात्मा कृमिसहचरो जन्मनि क्लेशभीतो, मन्ये जन्मिन्नपि च मरणात्तनिमित्ताद्विभेषि ।। ९९ ॥ अर्थः-उदर एक मलमूत्रका कुण्ड है । उस कुण्डमें आयुःकमके आधीन हुए तेने बहुतसे समयतक वास किया है । उस समय तुझै भूख प्यासके दुःख भी अत्यंत सहने पड़े हैं। वहां रहते हुए भी तेरी तृष्णा कम नहीं हुई । शरीर बढाने पोसनेकी लालसा बढती ही रही। माताने जो खाया पिया उसकी सदा तू यह इच्छा करता रहा कि मेरे फाडे हुए मुखमें यह अन्न-जल आकर पडै । गर्भाशयका स्थान छोटासा रहनेसे कभी तुझै वहां हलने चलनेको भी नहीं आया। पेटमें अनेक प्रकारके जंतु उत्पन्न होते हैं और रहते हैं वहींपर तू रहा । जन्मते समय तुझे और भी अकथनीय क्लेश सहने पडे हैं। इस सब दुःखसे तू डर चुका है । मरण होगा तो उसके आगे फिर जन्म भी धारण करना ही पडेगा । अरे प्राणी, यह समझकर ही मालूम पडता है कि १ ' वृद्धिगृद्ध्या' ऐसा भी पाठ होसकता है पर, देखने में नहीं आया।
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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