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________________ हिंदी-भाव सहित ( धर्मसे सर्व सिद्धिका होना )। ८१ __अर्थः-यह बात जग-जाहिर होरही है कि संपत्ति धर्म करनेसे मिलती है । सर्व जगमें श्रेष्ठ जगके स्वामी ऐसे राजा महाराजाओंका पद मिलना, अतुल पराक्रम होना यह सब जिसके सामर्थ्यसे प्राप्त होता है वह एकमात्र सच्चा पुण्य है जो कि केवल धर्म सेवनसे संचित होता है । इसलिये जिन्हें राजाओंकेसे धन ऐश्वर्यकी चाह है उन्हें चाहिये कि उसी धर्मका सेवन करें। पर, मूर्ख लोग ऐसा न करके क्या करते हैं ? राजा महाराजाओंकी सेवा करते हैं । और केवल मूर्ख ही नहीं किंतु बडे बडे पराक्रमी, बडे बडे विद्वान् तक उन्हींकी सेवा करते हैं । अरे भाई, तुम यह तो विचार करो कि वे भी जो राजा महाराजा बने हैं वह धर्मके ही सेवनसे बने हैं। और धर्मका बल घट जाता है तो वे भी राजासे रंक होते दीखते हैं। तो फिर तुम भी उसी धर्मकी सेवा क्यों नहीं करते हो ? यदि तुमने धर्म सेवन करके पुण्य कमाया होगा तो जगवासी जनोंकी सेवा न करते भी तुझे सुख-संपत्ती मिलती रहेगी। और यदि पुण्यका संचय तुमने नहीं किया या तुमारे पास पुण्य शेष नहीं रहा तो हजार राजाओंकी सेवा करनेसे भी तुझे कुछ हाथ न लगेगा, दुःखीके दुःखी ही रहोगे । इसलिये जब कि तुझें राजाओंकी सेवा करके भी पूरा और सीधा सुख नहीं मिल सकता तो वृथा जगमें नीचे बनकर अपमान क्यों सहते हो ? धर्मकी सेवा करो कि जिससे तुम अवश्य सुखी हो, लक्ष्मीवान बनो, जगके अपमानसे बचो और लोग तुमारी उलटी सेवा करने लगे। यस्मिन्नस्ति स भूभृतो धृतमहावंशाः प्रदेशः परः, प्रज्ञापारमिता धृतोन्नतिधना मूर्धा धियन्ते श्रियै । भूयास्तस्य भुजङ्गदुर्गमतमो मार्गो निरासस्ततो, व्यक्तं वक्तुमयुक्तमार्यमहतां सर्वार्थसाक्षात्कृतः ।। ९६ ।। अर्थः-दूसरोंको जिसका उपदेश किया जाता है उसका नाम प्रदेश हो सकता है । उपदेश धर्मका होता है इसलिये प्रदेश नाम धर्मका ११
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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