SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । सो नष्ट भई है बुद्धि जाकी ऐसे अनाचारी मूह विषई पुरुष आचरन करै। या जाने नाहीं कि यह अनाचारका मूल है ऐसा दोष जान अवश्य तनना योग्य है । अरु सर्वथा न रहा जाय तो आठ पहरकी खावो निर्दोष है । अथवा सूकी आवौली वा आंवलाकी बनाय ल्यो वृथा ही आपनै संसारसमुद्र विषै मति डोवै। आगे जलेबीका दोष कहिये है । सो रात्र विषै मैदानै माहिं वै है सो षटाई उठे तो जीव प्रत्यक्ष नजर आवै हजारां लाखां लटाका समूह उपजे, सो खट्टा मैदानै कपड़ा ऊपर रह जाय । ऐसी लटा सहित मैदानै स्वादके अर्थ घृत कड़ाहमें तलिये पीछे मिश्री खांडकी चासनीमें वौरे है । वहुरि अघोरीकी नाईं रात वा दिन विषै भोजन करै सोय भोजन कैसा सो हमनै जानै सर्वज्ञ जानै है। आगे भेलै जीमणका दोष कहिये । सो जगत विषै औंढि ऐसी निंद्य है सो मन दोय मन मिठाईकी छाव भरी ता माहींसू एक कनका उठाय मुखमें दीजे तो वा मिठाइनै कोई भेटे नाहीं । अरु या कहै ऐतो ओंठी होगई सो ये तजने योग्य है। अरु ऐ मूढ़ सरागी पीच सात जना । एकै साथ भेलै बैठ भोजन प्रसादी करै सो मोहढा माहिम साराकी औंठ थाली मांहि परै । वा मुखकी लाल थालीमें परै अथवा ग्रासकी साथि पांचू आंगुरी मुखमें जाय सो मुखमें आगुल्यां लालसों लिप्त होजाय फिर वैसा ही हाथसों ग्रास उठाय मुखमें देय ऐसे ही सारेकी ओंठि कांसा विषै धिल मिल एक मेक होजाय । सो परस्परि सरावै तो वे वाकी औंठि खाय, वौ वेकी ओंठि खाय परस्पर ए हास्य कौतूहल अत्यन्त स्नेह बंधाय वा मनुहारि करि पूर्न इन्द्री पोखै ताके पोखने पर काम विकार तीव्र होय। मान
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy