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________________ ३२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । अभय आदि दान दया करि देवे अरु चार भावना भावता निरंतर तिष्ठै सो सर्व जीवासू तो मैत्री भाव राखै । भावार्थ- सर्व जीवाने अपना मित्र जानै । आप साखा स्वरूप ऊको भी जाने । तीभु काइनै विरोधै नांही सर्व जीवांको रक्षपाल ही होय । अरु दूसरी प्रमोद भावनामूं आपसूं अधिक गुनवान पुरुषसू विनैवान होय प्रवत्तौ। अरु तीसरी कारुण्य भावना दुखित जीवांकौ देख वाकी करुना करै अरु जिस प्रकारसे बाकौ दुख दूर होय ती प्रकार दुख्यनै मैटै । अरु आपनी सामर्थ नहीं होई तौ दयारूप परनाम ही करै । वानै दुखी देख निरर्द रूप कठोर परनाम छै सो यहां कषाय है । अरु कोमल परनामा छै सो निःकषाय छै सो ही धर्म छै अरु चौथी माध्यस्त.मानना सो विपरीत पुरुष तासू माध्यस्थ रूप है नहीं तौ वेसू राग करै नहीं वेसू द्वेष करै । कोई हिंसक पुरुष छै । अथवा सप्त व्यसनी पुरुष छै सो वानै समझै तौ धर्मोपदेश दे करि पाप कार्य छुड़ाई दीजै । नहीं समझै तो आप माध्यस्थ रूप रहनै । ऐसे चार भावनाका स्वरूप जाननां । अरु और भी केतीक वस्तूका त्याग करै सो कहै है । अरु बीधा अन्न अरु माखन कहिये नैनू । अरु विदल कहिये टुफाड़ा नाजका संजोग सहित उन बिना । अथवा दाखं चिरौंजी आदि वृक्षका फल दही वा छाछका खाना । अरु चौमासै तीन दिन सियाले (सीत ऋतु ) सात दिन उन्हालै (गरमीमें ) पांच दिन उपरांत कालके आटाका भक्षण नाहीं करना आठ पहरके उपरांतका दही न खाइ । भावार्थ:-आजका जमाया काव खाना जामन दिया पाछै पहर अष्टकी मर्यादा है और
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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