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________________ . २८२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । जबे भोगवे । कोईकी संका राखे नाहीं ताप्तों या विपरीतता सबै नगरका स्त्री पुरुष देखवा देस देसका राजा या बात सुन घनी दुखी हूवा अरु याका जीतवाने असमर्थ हुवा तातै निशेष दुखी पाछे पारवतीका माता पिता पारवतीने पूछी। तूने महादेवजीने पूंछथांसों विद्या कभी दूर रहे छे तब पारवती जानवेने पूछी. तब महादेव कही । एक भोग करती वार दुर रहे छे और कभी दूर न रहे है। ऐ समाचार पारवतीने पितासू कहा तब राजा परवत आपनी दाव जान महादेवने मारयो तब ईका इष्टदाता देव छानें नगरमें पीड़ा करी। अरु या कही म्हाका धनी थे मारया तव नगरका लोगा या कही मारो सो तो पीछो आवे नाहीं अब थे कहो सोही करो कब का व्यंतर देवां कही भग (योनि) सहित महादेवके लिंगकी पूजा करो तब पीड़ाका भय थकी नगरका लोग ऐसी ही आकार बनाय पूजा करवां लागा ऐसेही व्यंतरदेवांका भय थकी केताइक काल ताईं पूजता इवा पाछे गाड़री प्रवाह सारखो जगत है सो देखादेखी सारा मुलक पूजता हुवा सो वाही प्रवृत्त और चली आवे छे । अरु जगतके जीवांके ऐसो ज्ञान नाहीं जो मैं कौनने पूनों छों । अरु याको फल काई छै सो मिथ्यात्वकी प्रवर्ति विना चलाई चली आवे छै अरु धर्मकी प्रवर्ति चलाई चलाई चले नाहीं सो यह न्याय ही है । संसारमें तो घना जीवानें रहनों है अरु संसारसों रहित थोड़ा जीवाने होनों छै । अरु देखो स्त्रीका स्वभाव दगाबाज सो जगतके दिखावने ऐसी लज्या करे जो सरीरका आंगोपांग अंस मात्र भी दिखावे नाहीं। अरु माता पिता भाई
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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