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________________ २४४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । Smama समाधि मरन स्वरूप संपूर्न । आगे मोक्षका सुख वरनन करिये है । श्री गुरां पास शिष्य प्रश्न करै है। कांई प्रश्न करे है हे प्रभू हे स्वामिन हे नाथ हे कृपानिधान हे दयानिधि हे परम उपगारी हे संसार समुद्रके तारक भोगनासू परान्मुख आत्मीक. सुखमें लीन तुम मेरे ताई सिद्ध परमेष्ठी सुखनका स्वरूप कहो, कैसा है शिप्य महां भक्तिवान है अरु विनयवान है । अरु मोक्ष लक्ष्मीकी प्राप्तिका अभिलाषी है । सो वह श्रीगुरांका तीन प्रदक्षना देय हस्त कमल मस्तकके लगाय हस्त जोर गुरांका मौसरने पाइ वारंवार दीनपनाका वचन विनयपूर्वक प्रकासितो हूवो अरु मोक्ष लक्ष्मीका सुखने पूछतो हूवो तब श्री गुरु कहें हे शिष्य हे पुत्र हे भव्य हे आर्य तें बहुत भला प्रश्न किया अब तू सावधान होय कर सुन यह जीव सुद्धोपयोगका महात्म कर केवल ज्ञान उपाय सिद्ध क्षेत्रमें जाय तिष्टं सो चरम शरीरते किंचित ऊन प्रदेशोंकी आकृतनै धरे सास्वतो मोक्ष विषे तिष्टे है सो कैसे हैं सिद्ध एक एक सिद्धकी अवगाहनामें अनन्त अनन्त सिद्ध भगवान न्यारे न्यारे तिप्टे हैं कोई काहूसों मिले नाहीं। वहुरि कैसे हैं सिद्ध भगवान तिनके आत्मीक ज्ञानमें लोकालोकके समस्त पदार्थ तीन काल संबंधी द्रव्य गुन पर्यायने लियां एक समयमें जुगपत आइ झलकें हैं । ताके चरन जुगलकूँ मैं नमस्कार करूं हूं बहुरि कैसे हैं सिद्ध भगवान परम पवित्र हैं परम शुद्ध हैं अरु आत्मीक स्वभावमें लीन छै अरु परम अतेन्द्री अनोपम बाधारहित निराकुल रसने निरंतर पीवें हैं तामें अन्तर परे नाहीं बहुरि कैसा हैं सिद्ध भगवान असंख्यात
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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