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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । nayaparvvvvvvvvvvvvvvvvsnnnnn सरन नाहीं । हमारे यह नेम है ऐसा विचार कर फेर स्वरूपमें उपजोग लगावे. फेर वहांसू उपयोग चले तो अरहन्त सिद्ध ताका द्रव्य गुन पर्याय विचारे तन वाका द्रा गुन विचारता उपयोग निर्मल होय तब फेर आपना स्वरूपमें लगावे अरु आपना स्वरूप सारखा अरहंत सिद्ध जाने सो कैसे द्रव्यत्व स्वभाव में फेर नाहीं है । अरु पर्याय स्वभाव विर्षे फेर है । अरु मैं हूं सो द्रव्यत्व स्वमावका ग्राहक हूं तासूं अरहंतका ध्यान करता आत्माका ध्यान भली भांति सधे अरहंतका स्वरूपमें अरु आत्म स्वरूपमें फेर नाही भावे तो अरहन्तका ध्यान करो भावे आत्माने ध्वावो ऐसा विचार करे तो सम्यकदृष्टि पुरुष सावधान हूवो स्वभावमें तिष्ठे हैं । आगे अब काई विचार करें अरु कैसे कुटुम्ब परवारादिकसों ममत्व छुड़ावें सोई कहिये है । अहो ई शरीरके माता तुम नीके कर जानों यह शरीर एते दिन तुम्हारा क्षा अब तुम्हारा नाहीं अब जाका आयु पूर्न भया सो कौनका राख्या रहे कभी न रहे याकी येही स्थित थी सो अब जासों ममत्व छोड़ो अब जासों ममत्व करवा कर काई अब जासों प्रीति करवो दुखका कारन छै अरु शरीर तो इन्द्रादिक देवांको भी बिनसे छै जब मरन समय आवे तब इन्द्रादिक देव जुलक जुलक मुख चोघताई रहे सर्व देवाका समूह देखता कालका किंकर ले जाई ऐसो न सुनो जो कोई कालसू बचायो यो काल सर्वभक्षी छै अरु जे अज्ञान ताकर कालके वस रहसी त्याकी याही गति होसी सो थे मोहके वसकर संसारको झूठो चरित्र देखो नाहीं। अब थें मोहका वसकर विनासीक शरीरसू ममत्व करो छो । अरु जाने एक चाहो सो
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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