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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार-1 - - जोग्य आखड़ीको गृहण करता हुवा भरु कई प्रभ करता हुवा । केई अपना अपना संदेहका निवारन करता हुवा ऐसे नानाप्रकारके पुन्य उपार्ज ज्ञानकों वधाई मुन्यानै फेर नमस्कार करि मुन्याका गुनानै सुमरता सुमरता आपनै ठिकाना जाता हुवा । ऐठा आगै मुन्याका विहार स्वरूप कहिए है जैसे निरबंध स्वेच्छाचारी वनविर्षे हस्ती गमन करै है। तैसे ही मुनि महरान गमन करै है सो हस्ती भी धीरे धीरे इंडिकी चालन करिता अरु सूंडनै भूमसूं स्पर्स करावता- थका अरु सूंडनै ऐठी उठी फैलावता थका अरु धरतीनै सूडसुं सूंघता थका निशंक निरमय गमन करे है। त्योंही मुनि महाराज धीरे धीरे . ज्ञानदृष्टि करि भूमिकू सोधता निरभय निशंक स्व इच्छाचारी विहार कर्म करै है । मुन्याकै भी नेत्रकै द्वारै ज्ञानदृष्टि धरती पर्यंत फैली है। सो याके यही सुंड है तीसू हाथीकी उपमा संभव है अरु गमन करता जीवांकू विराध्या नांही चाहै है । अथवा मुनि गमन नाही कर है भूली निधन हेग्ना नाय है । अरु गमन करता करता ही स्वरूपमें लग जाय है । तब खड़ा रहि जाइ है । फेर उपयोग तला उत्तरे है तब फेर गमन करै है पाछै एकांत तीष्ठ फेर आत्मीक ध्यान करै है। अरु आत्मीक रस पीवै है जैसे कोई पुरुष क्षुधा करि पीड़ित त्रषावान ग्रीष्म समय शीतल जल करिगल्या मिश्री काढेला अत्यंत रुचिसूं गड़क गड़क पीवै है । अरु अत्यंत तृप्ति होई है । तैसे शुद्धोपयोगी महामुनस्वरूपाचरन करि अत्यंत तृप्ति है वार वार वेई रसनै चाहै हैं वाकू छोड़ि कोई काल पूर्व ली वासना करिशुभोपयोग विधै लागें हैं । तव या जानै है ग्हा ऊपरआफत
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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