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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - २०५ पगके नख अत्यंत उज्जल निर्मल हैं । अरु स्याम मनमई महां नरम महां सुगंध ऐसे मस्तकपै केसकी अमी है । मुखकी वक्र रेखा तीर्थंकरवत् सोभे है। बहुरि कैसे है जिनविम्ब केई तो सुवर्नमई हैं । केई रक्तमणिके हैं केई नील वनके है । केई पन्नाके हैं केई स्याम वर्नके हैं। केई स्वेत फटक मनके मस्तक ऊपर तीन छत्र विराजे हैं मानू छत्रके मिस कर तीन लोक ही सेवाने आये हैं। चौसठ यक्ष जातके देवताका रत्नमई आकार है । ताके हस्त विषं चोसठ चमर हैं । सो श्री जी ऊपर बत्तीस दाहनी तरफ बत्तीस वाईं तरफ लियें खड़े हैं । अनेक हजारा धूपका घड़ा धरया है। लाखा कोड्या रत्न मई क्षुद्र घंटका है लाखा कोड्या रत्नके दंड रत्नमई कोमल वस्त्र सहित महा अनंग सोभे है । अनेक चंद्रकांत मणि सिलानकी वावड़ी वा सरोवर कुंड नदी पर्वत महलोंकी पंक्ति सहित वन वा पुप्प वटी निनमंदिर सोभे हैं। बहुरि कैसे निनमंदिर एक बड़ा दरवाजा पूर्वदिसा सन्मुख चौखुटा है दोय दरवाजा दक्षिन उत्तर दिसी चौखूटा है बहुरि पूर्व सन्मुख रचना सैकड़ा हमारा जोजन पर्यंत आगाने चली गई है। विशेष इतना पूर्वके द्वारा आदि रचनाका लांबा चौड़ा उतंगका प्रमान है। तातें आधा दक्षिन उत्तर द्वार आदिका प्रमान है । ताही ते दक्षिन उत्तर द्वारको मूल्यहार कहें हैं । बहुरि सर्व रचना कर बाहु चार चार द्वार सहित तीन महा उतंग कोट हैं। वहुरि तिन मंदिरके लाखा कोड्या अनेक रत्नान सहित निर्मापित महा उतंग स्थंभ लागे हैं । बहुरि तीन तरफ अनेक प्रकारके सैकड़ा हजारां योजन पर्यंत रचना चली गई है। कठै ईतो सामान्य मंडप है कहीं
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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