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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २०३ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ अरु वह मनुप्य भव धन्य जो संसार असार जान निज आत्म कल्यानके अर्थ श्री जिन धर्म आराध्या ताका फल अब ऐसा पाया धन्य है यह जिनधर्म ताके प्रसाद कर सर्वोत्कृष्ट वस्तु पाई है। जिन धर्म उपरान्त संसार में और पदार्थ नाहीं तात संसार सुख है सो एक जिन धर्म ही तें है । तातै परम कल्यान रूप एक जिन धर्म है । ताकी महमा वचन अगोचर है । सहस्र मिला कर सुरेन्द्र भी पार पावे नाहीं । वा मुनेन्द्र भी पार न पावें सो यह काई आश्चर्य है जिनधर्मका फल तो सर्वोत्कृष्ट मोक्ष ही है तहां अनन्त काल पर्यंत अविनासी अतेन्द्री अनोपम बाधारहित निराकुलित म्वाधीन संपूर्न सुख पाजे अरु लोकालोक प्रकाशक ज्ञान पाजे ऐसे अनन्त चतुष्टय संयुक्त आनन्द पुंज अरहन्त सिद्ध ऐसे मोक्ष सुख अंतर रहित भोगवें हैं । ताकर अत्यंत त्रप्त है । जगत पूज हैं । वाके पूजने वारे वा सारखे हे हैं। सो हे प्रभू जिनधर्मकी महमा हमतें न कही जाय । अरु धन्य हो आप, सो ऐसे जिनधर्मको पूर्वे आराधा ताके फल कर यहां आय अवतार लिया सो आपकी पूर्व कमाई ताको फल जानो ताकू निर्भे चित्त कर अंगीकार करो अरु मनवंछित देवो पुनीत सुखने भोगवो अरु मनकी संका दूर ही तें. तनो हे प्रभू हे नाथ परमदयालु जिनधर्म वात्सल्य सबको प्यारा म्हां सारखे देवनकर पूज्य असंख्यात देवदेवांगना के स्वामी अब तुम होहु. अपने किया कार्यका फल अवधारो हे प्रभू हे सुन्दराकार हे देवनके प्यारे हमपर आग्या करो सोई हम सिर ऊपर धारेगें अरु ये असंख्यात देवांगना आपके दास हैं। तिनकू अपने जान अहंकारो यह जिनधर्म विना ऐसी संपदाको पावे नाहीं जासू हे प्रभू अब शीघ्र ही
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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