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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १५ राग घनी वार हुई है तीनू कोई प्रकारको विकल्प मत करौ । और कोई ऐसे कहता हुवा रे भाई तैं या आछी कही याकै अत्यंत अनुछै | श्रावक धन्य क्षै ऐसे परस्पर बतलावता हुवा । अर मन जै विचारता हुवा तैसे ही मुनिका ध्यान खुल्या । अर बाह्य उपजोग कारि सिल्य जनादिने देखवा लागा तब सिख्य कहता हुवा | रे भाई सुन परम दयाल आपाने दया करि सन्मुख अवलोकन करे है । मानूं आपनै वुलावै ही है हीसूं अवैं सावधान होइ अर सितावी चालौ चालिकर अपना कारज सिह करौ । सो वे सिख्य मुन्याके निकट जाता हुवा अर श्री गुराकी तीन प्रदक्षिना देता हुवा अर हस्त जुगल मस्तक कै लगाई नमस्कार करता हुवा । अर मुन्याका चरन कमल विषै मस्तक धरता हुआ । अर चरननकी रज मस्तककै लगाता हुवा अर अपनौ धन्यपनौ मानता हुवा | अर दूर न घना नजीक ऐसे विनय संयुक्त खड़ा हुआ अरु हाथ जोर स्तुति करता भया, काई स्तुति करता हुआ हे प्रभू, हे दयाल, हे करुनानिधि, हे परम उपगारी, संसार समुद्र के तारक, भोगनसूं परान्मुख, अरु संसारसूं परान्मुख, अर संसार सं उदासीन, अर शरीर निःप्प्रेह अर खपर कार्य वि लीन ऐसे ज्ञानामृत करि लिप्त थे जैवंता प्रवत्तौं । अर मो ऊपर प्रसन्न हो, प्रसन्न हो, बहुरि हे भगवान् थां विना और म्हा कौ रक्षक नाहीं थे अवै म्हांनै संसारमाहि से काड़ौ अर संसार विषै पड़ता जीवाने थें ही आधार क्षै । अर थें ही सरन क्षौ । तीसूं जीवातमें म्हाकौ कल्याण होइ सोई करौ अर
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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