SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ...१८४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार। अब हम बिध रिचतु दूर हीने तज्या धिकार होहु ऐसा विषफल खावाने अरु कुदेवादिकका आचरने अरु हमारी भी पूर्व अवस्थाने धिकार होय अरु अब मेरे हे जिनेन्द्र देव थाकी सरधा आई सो मेरी बुद्धि धन्य है अरु मैं धन्य हों मेरा जनम सफल भया में कृत कृत्य भया मेरे चाह थी सोई भई अब कार्य करना कछु रहा नाहीं । संसारके दुखते तीन चूल जल दिया ऐसा तीन लोकमें वा तीन कालमें पार कौन है, सो भगवानका दर्सनने वा पूजा वा ध्यानतें वा सुमरनतें वा स्तुतिते नमस्कारतें अरु ज्ञानतें निन सासनका सेवन जाय नाहीं । ज्यों कोई अज्ञानी मूर्ख मोहकर ठगाई है बुद्धि जाकी ऐसे अरहन्तदेवकू छोड़ कुदेवादिकने सेवे हैं वा पूजे हैं अरु मन आक्षत फलने चाहे हैं सो मनुष्य नाहीं पसु हैं या लोकमें वा परलोकमें ताका बुरा होना है । जैसे कोई अज्ञानी अमृतने छोड़ व चिन्तामनने छोड़ काच खंडने पल्ले बांधे कल्पवृक्षने छोड़ धतूरो बोवे त्योंही मिथ्यादृष्टि श्री जिनेन्द्रने छोड़ कुदेवादिकका सेवन करे हैं घनी कहा कहिये बहुरि हे भगवान ऐसी करहु जो गर्भ जन्म मरनका दुखकी निर्वृत्य होय अब मेरे बूते दुख सहा जाता नाहीं वाका सुमरन किये ही दुख अपने तो सहा कैसे जाय ताते कोट बातकी एक बात ये है मेरा अवगुन निवारिये अष्ट कर्मा ते मोक्ष करिये केवल ज्ञान केवल दर्शन केवल सुख अनंत वीर्य यह मेरा चतुष्टय स्वरूप धाता गया है। सो ही घातिया नासने प्राप्त होहु मेरे सुर्गादिककी चाह नाहीं मेंतो परमानू पर्यंतका त्यागी हूं मेरे तो त्रैलोकमें स्वर्ग चक्रीपद कामदेव तीर्थकर पद पर्यंत चाह नाहीं। मेरे तो मेरा स्वभावकी वाक्षां है। चाहे जैसे स्वभा--
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy