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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | १७३ 1 मुन्यादिक सत्पुरुष ताकी महमा करने समर्थ हम नाहीं । कहां तो नर्क वा निगोदादिकके दुख वा ज्ञान वीरजकी नूनता अरु कहां मोक्षका सुख अरु ज्ञान वीर्यादिककी अनन्तता सोहे भगवान तुमारे प्रसाद कर यह जीव चतुर गतिके दुखको छोड़ सुख है । ऐसे परम उपगारी तुम ही हो । तातें हम तुमारे ताई वारंबार नमस्कार करें है। बहुरि भगवानर्जी म ऐसा तत्वोपदेसका व्याख्यान किया ये अधो लोक है, ये मध्य लोक है, यह ऊर्द्ध लोक है, तीन बात विलैकर वेष्टित है । वा तीन लोकका एक महा स्कंध है । ता विषें अष्ट प्रतमा स्वर्ग विमान जड़ रहे है । बहुरि एकेन्द्री जीव वे इन्द्री जीव ऐते इन्द्री ऐते पंचेन्द्री ऐने तिर्यंच ऐते मनुष्य ऐते देव ऐते पर्याप्त ऐते अपर्याप्त ऐते सुक्ष्म वा बादर ऐते नित्य निगोदके जीव ऐते अतीत कालके समय अनन्ते तासु अनन्त वर्गना स्था गुने जीव रासका प्रमान है । अरु तासो अनन्त वर्गना स्थाना गुने पुद्गल रासका प्रमान है अरु तासू अनन्त वर्गना स्थान गुने अनन्त कालका प्रमान है । तासू अनन्त वर्गना स्थान गुने आकास द्रव्यका प्रदेसनका प्रमान है । तातें अनन्त वर्गना स्थान गुने धर्म द्रव्य अधर्मं द्रव्यका अगुर लघु नामा गुन ताका अविभाग प्रतिक्षेद है । तातें अनन्त वर्गना स्थान गुने सूक्ष्म निगोदिया अलब्धि अपर्याप्तनके सर्व जीवांसू घाटि घाटि एक छोटे अक्षरके अनन्तवें भाग ज्ञान कोई ऐसा निरास पाइये है । ताका नाम पर्याय ज्ञान है वासूं कोईके ज्ञान त्रिकाल त्रिलोकमें घाट न होय । वह ज्ञान निरावरन रहे है वापर ज्ञानावरनीका
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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