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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - - - आवे है। आगममें ठौर ठौर सर्व सिद्धान्त ता विषं एक सिद्धान्त भाव ही है। कर्म वर्गना सों तीन लोक घीका घड़ावत भरया है । सो कर्म वर्गनासों ही बंध होय है तो सिद्ध महाराजके होय । अरु विर्षे भोग परिग्रहके समूहसों ही बंध होय तो अवृत सम्यकदृष्टि चक्रवर्त तीर्थकर आदि ताके होय । भरत चक्रवर्त क्षायक सम्यकदृष्टि था, तातै सम्यक्तिके महात्म कर षट् खंडकी विभूत छियानवे हजार स्त्री योगने कर ही बंध निराश्रव ही रहा ताही तें दिक्षा धरे पछे अंतमुहुर्तकाल व ने केवलज्ञान उपाा सो सम्यकका महात्म अदभुत है। यहां प्रश्न तुम कहते हो मुनि महाराज अवृत सम्यकदृष्टिके बंध नाहीं। तो चौथा गुनस्थानसूं लगाय दसवां गुनस्थान पर्यंत अनुक्रमतें घटता घटता बंध कैसे कह्या । जाकर उतर यह कथन है । सो तुरति सम्यक्त की अपेक्षे है । सो बंधने मूलभूत कारन एक दर्शन मोह है । जैसा दर्शन मोहते बंध है तातें नाहींगने । निश्च विचारता दसमां गुनस्थान पर्यंत रागादिकोंमें बंध पाइये है । यह भी शास्त्र विषे कहा है। सो यह न्याय ही है । जी जी स्थानक विर्षे जेता रागभाव है । तेता तेता ही बंध है यह बात सिद्ध भई । एक असाधारन कारन अष्टकर्म बंधनेको मोहकर्म है ताते एक मोह हीको नास करनको प्रायश्चित तप विर्षे धर्मबुद्धि विषेश होय है। अरु जाके बर्मबुद्धि विषेश होय संसारके दुखका भय होय सोई गुरुनपे जाय प्रायश्चित दंड लेय याका मनकी बात कौन जाने था याके आखड़ी भंग गई है। परन्तु यह धर्मात्मा परलोकका भय थकी प्रायश्चित्त अंगीकार करें हैं। यातें अनन्त गुनाफल विनय तपका है। या
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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