SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - होय नमस्कार करै है । अरु अपना हितकै अर्थ मुन्याके उपदेश नै चाहै है । बहुरि ज्ञानामृतका आचरन करि नेत्रविषै अश्रुपात चालैसों अंजुली विषै पड़े है ताको चिड़ी कबूतर आदि भोलापक्षी जल जान रुचिसो पीवे है । सो ए अश्रुपात नाहीं चाले हैं यह तो आत्मीक रस ही अवै है । सो आत्मीकरस समाया नहीं है तातै बाह्य निकाया है अथवा मानौ कर्मरूपी बैटीकी ज्ञानरूपी षड्ग करि संघार किया है । तातै रुधिर उछलिकर बाह्य निकसे है । बहुर कैसे हैं शुद्धोपयोगी मुनि अपना ज्ञान रस करि क्षक रह्या है । तातें बाह्य निकसवानै असमर्थ है। कदाचित् पूर्वकी वासना कर निकसै है तौ बानै जगत् इन्द्र जालवत् भासै है। फेर तत्क्षण ही स्वरूप विर्षे ही लग जाय है । फेरि स्वरूपका लागवा करि आनंद उपजै है । ताकर शरीरकी ऐसी दशा होय है। अरु गदगद शब्द होय है । अरु कहीं तौ जगतके जीवानै उदासीन मुद्रा प्रति भास है । अरु कहे मानूं मुन्यानिधि पाई ऐसी हंस मुखमुद्रा प्रतिभासै है। ये दोऊ दशा मुनियाकी अत्यन्त शोभै है । बहुर मुनि तौ ध्यान विषै मरक ( लीन) हुवा सौम्य दृष्टिनै धरया है । अर वहां नगरादिकसं राजादिक बंधवानै आवै है सो अवै वे मुनि कहां तिष्ठै है । कै तो मसान भूमिका विषै कै निरंजम पुराना वन वि अरु कै पर्वतादिककी कंदरा कहिये गुफा वि अरु कै पर्वतका सिखर विर्षे अरु कै नदीके तीर विर्षे अथवा नगर बाह्य चैत्यालय विर्षे इत्यादि रमनीक मनके लगवाने. कारन जो होय ता अरु उदासीनताके कारन ऐसा स्थान विषै तिष्ठे हैं जैसै कोई अपनी निधिनै छिपावता फिरै अर एकान्त जायगाका
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy