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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । मात्र वस करनेको मोह विधूलके धरया साहस्य है। बहुरि मनमें क्यों ही वचनमें क्यों ही कोईको बुलावे कोईको सेन दे कोईतूं प्रीत जोरे कोईसू प्रीत तोरे छिनमें मिष्ट बोले छिनमें गारी देइ छिनमें लुभाय कर निकट आवे छिनमें उदास होय कर जाती रहे इत्यादि मायाचार. सुभाव कामके तीव्रताके वस कर स्वयं सिद्ध पाये हैं स्त्रीके कारी साकी अप्रि जाननी सादृस्य कामदाहकी ज्वाला जाननी, पुरुषके त्रणकी अग्नि, नपुंसककै पिजावाकी अग्नि साढस्य काम अग्न जाननी बहुरि दान देवेको कपला दासी समान रूपन है । सप्त स्थानका मोन्य कर रहित है। चिडीवत चकचकाट किये बिना दुखित है। अंदरायनके साहस्य फल रूपको धरया है। बाह्य मनोहर भीतर विष समान कड़वा....। देखनेको मनोहर खाये प्रान जाइ । त्योंही स्त्री दीसती बाह्य मनोहर अंतर प्रान हरे है, द्रष्टि विर्षे सर्पनी सादृस्य है । सवद सुर पाये विचक्षन सूरवीर पुरुषनको विभले करनेको कामज्वर उपजाबनेका कारन है । रजस्वलामें वा प्रसूत होने समय चांडालनी साहस्य है । ऐसे ओगुन होते संते भी मानके पहार ऊपरे चढ़ी औरनकू साढस्य म ने हैं। सो आचार्य कहे हैं धिक्कार होहु मोहके ताई । सो वस्तुका स्वरूप यथारथ भासे नाहीं । ताही ते अनन्त संसार विषै भृमे है मोहके उदैते ही जिनेन्द्र देवने छोड़ कुदेवादिक पूजे है । सो मोई जीव काई काई अकल्यानकी बातें नाहीं करे। . अरु अपने संसार विषे नाहीं उपमा पावे । आगे स्त्रीनके बेसर्मका स्वरूप कहिये है। मागकी सर्म होय है । सो तो स्वयमेव ही माही। मूंछकी सर्म होय है सो मूछ नाहीं । आष्याकी
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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