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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ११३ नड़से तो खेंच सर्वांग आचारवे कौ समर्थ है तीसौं अबै सुगम कर या माफिक प्रवरति करिस्यां अरु काल पूर्न करिस्यां । पीछे ऐसा उपाय करता हुवा या जिन प्रतीत शास्त्रका लोप करि जामें अपना मतलब सधै । विषय करवाय पोख्या जाय ती अनुसारने लिये। पेंतालीस शास्त्र पंडिताईका बल कर मनो कल्पत गूंथे । अरु ताका नाम द्वादसांग धरया ता विषै देव गुरू धर्मका स्वरूप अण्यथा लिख्या । देव गुरुकै परग्रह ठहराय धर्म सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्र विना उपवासमें जल मिष्टानादि लैना काय कलेश वीतराग भाव बिना स्थापन कीन्हैं । सो किया तब तौ लंगोटी पिछौड़ी भोजनका पात्र ये तीन राखेथे द्रव्यादिककै अभाव था पीछे ज्यों ज्यों काल आवता गया त्यों त्यों बुद्धि विशेष रागभावनै अनुसस्ती गई ताही माफक द्रव्य असवारी आदि परिगृह राखते भये । मंत्र जंत्र जोतिष वैद्यक करि मूर्ख गृहस्त लोकानै बस करते भये । आपना विषय कखायनै पोखते हुवे ता विषै भी कखायोंके तीव्र वसीभूत हुवे तपालो बीजमत परतरा आदि चौरासी मत स्थापै । पीछे विशेष काल दोष करि शास्त्रमाहिका मत विष ही मारवाड़ देश विषै एक चेला लड़कर ढूंटार विषै जाय पीछे ढूंटया मत चलाया । अरु पेंतालीस शास्त्र माहिं बत्तीस ही शास्त्र राखे ता विषै तौ प्रतमाजीका तो स्थापन है। पूजनका विषै फल लिख्या है आकृतम चैत्यालय वा प्रतमाजी तीन लोक विषै संख्यात है। ताका विशेष महिमा वर्णन लिख्या है। परंतु हिन्दू मुसल्मान दिगंबर वा श्वेतांबरसू दोष पालनैके अर्थ प्रतमाजीका वा जिन मंदिरजीका जिन थापन किया । सो काल दोष कर वा मतिकी बृद्धि प्रचुर फैल
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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