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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार। - - नायकनै मान बड़ाईका भरया प्रमादी हुवा बैठा बैठा पूजा करै । राजादिकनै तौ बैठनै पावै ही नाहीं तौ भगवानके निकट बैठना कैसे संभवै । अरु पूजा करता भगवानको अवलोकन छोड़ि स्त्री आदि नै देखै लुगायांकी खुसामदीके अर्थ माथासू ऊपर बारंबार जलधारा दिखावै । सो भगवानका दर्शन उपरांत जलधारा देखनैका उत्कृष्ट फल कह्या और पंडित जेती जेती अरु जेती पूजा गृहस्थानपै करावै ताका नेग मांग लेय । इत्यादि जेता कार्य होय सो अबिधि सौ होय और पुरुप जेता आवै तेता लौकिक बात करै । वारंवार परम्पर भृष्टाचार करै प्रतिमाजीका वा शास्त्रजीका अविनय ताकी खबर नाहीं और जाजम नगारा आदि देहराकी निर्मायल वस्तु ग्रंहस्थी अपना विवाहादि कार्य विषै लै जाय बरतै ऐसी विचारै नाहीं। यामें निर्मायलका दोष लागै है । इत्यादि जहां पर्यंत मंदिर हैं तहां पर्यत मंदिर विषै अयोग्य कार्य होय धर्मोपदेशका कार्य नाम मात्र भी नाहीं । तातें ऐसा मंदिर करावा बिना तौ नं कराया श्रेष्ठ था। याके पापका पारावार नाही। जे जे अन्यमती अविनय करै तैसा ही जैनी होय अविनय करै अरु मनमें ये मान राखै मैं जिनमंदिर कराया है सो मैं भी धर्मात्मा हौं । सो नाम मात्र धर्मात्मा है। सो याको फल तौ उदय आवसी तब खबर परसी। श्रेणिक महाराजा चेलना रानीकी हास्य करनै अर्थ कौतूहल मात्र मुन्याके गलामें मृतक सर्प नाख्या हत्यौ । सो नाखत प्रमाण ही सातवां नरकका आयु बंध किया। पीछे मुन्याका शांति भाव देखकर परिणाम सुलटना महां दरेग उपज्यौ । सम्यत्वकी प्राप्ति हुई । वईमान अंतम तीर्थकरकै निकट क्षायक सम्य
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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