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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ५ तुप्त होय है । अब कुछ भी चाह रही नाहीं कृत्य कृत्य हुआ कारज करता था सो कर चुका । बहुरि कैसे हैं परमात्मा देव ज्ञानामृत कर श्रवै है स्वभाव जिनका अरु स्वसंवेदन करि उछलें हैं। आनंदरसकी धारा जावि उछलकर अपने ही स्वभाव विर्षे गड़फ होय है अथवा सकरकी डली जल विधें गल जाय । तैसे स्वभाव विर्षे उपयोग गल गया है । वाहरें निकसनेको असमर्थ हैं । अरु निज परिनति (अपने स्वभाव) वि रमै हैं । एक समय विर्षे उपनै हैं अरु विनसें हैं अरु. ध्रुव रहैं हैं। पर परनतिसे भिन्न अपने ज्ञान स्वभाव विथें प्रवेश किया है । अरु ज्ञान परिनति विर्षे प्रवेश किया है । अर एकमेक होयं अभिन्न परिणवै है। ज्ञानमें अरु परिनतिमें दो जायगा रहै नाहीं। ऐसा अभूत पूर्व कौतूहल सिद्ध स्वभाव विषैहोय है । बहुरि कैसे हैं सिद्ध अत्यंत गंभीर हैं अरु उदार है अर उत्कृष्ट है खभाव जाका । बहुरि कैसे हैं सिद्ध निराकुलित अनुपम बाधा रहित स्वरस कर पूर्ण भरचा है वा ज्ञानानंद करि अहलाद है वा सुख स्वभाव विर्षे मगन हैं । बहु कैसे हैं सिद्ध अखंड हैं, अजर हैं, अमर हैं, अविनाशी हैं । निर्मल हैं, अरु चेतना स्वरूप हैं, सुद्ध ज्ञानमूर्त हैं । ज्ञायक हैं, वीतराग हैं, सर्वज्ञ हैं, त्रिकाल सम्बन्धी चराचर पदार्थ द्रव्य गुन पर्याय संयुक्त ताकों एक समय विर्षे युगपत जाने हैं। अरु सहजानन्द हैं, सर्व कल्यानके पुंज हैं, त्रैलोक्य करि पूज्य हैं, सेवत सर्व विघन विलय जाय हैं, श्री तीर्थंकर देव भी तिनको नमस्कार करें हैं, सो मैं भी बारम्बार हस्त जुगल मस्तककों लगाय नमस्कार करूं हूं सो क्या वास्ते नमस्कार करूं हूं वाही
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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