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________________ श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : शान्त महर्षि को देखकर कुमारने भगवान से पूछा कि-हे स्वामी ! यह महर्षि कौन है ? प्रभुने उत्तर दिया कि ये वीतभयपतन के राजा नीतिमान उदायन हैं। ये राज्या. चस्था में मुझे वंदना करने के लिये आये थे तब मैंने इन प्रकार धर्मोपदेशक दिया था कि-संध्या के रंग सदृश, पानी के बुदबुदे जैसा और दर्भ के अग्र भाग पर ठहरे हुए ओशबिन्दु के समान यह जीवन चंचल है और युवावस्था नदी के वहाव के समान वहती है तो फिर पापी जीव ! तुझे बोध क्यों नही होता ? अहो ! मुक्ति के सदृश सुख इस संसार में किसी भी स्थान पर उपलब्ध नहीं हो सकता है। इस विषय पर अंगारदाहक का दृष्टान्त देखने योग्य है सौ) सुनिये। अंगारदाहक का दृष्टान्त कोई एक अंगार ( कोयला) का व्योपारी लकड़ी को जला कर उसके कोयले बनाने के लिये एक जल का भरा घड़ा लेकर वन में गया। वहां काम करते करते तृषा लगने से यह खुद ही पूरे घड़े का पानी पी गया परन्तु सिर पर सूर्य के प्रचण्ड ताप से तथा पास में कोयले बनाने के लिये जलाई हुई अग्नि के ताप से तथा लकड़ी के काटने के श्रम से अत्यन्त तृषा लगी इस से पानी नहीं मिलने से वह मूर्छा खाकर निद्रावश हो गया। निद्रा में उसको
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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