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________________ : ४६ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : समय तक जीते रहो । तथा अभयकुमार मंत्री को जो कहा वह इस कारण से कहा कि-वह जीते हुए तो यहां सुख भोगता है और मरने पर सर्वार्थसिद्ध विमान में देवता होनेवाला है इस लिये मरो चाहे जीवो ऐसा कहा और कालसौकरिक को इस अभिप्राय से कहा कि-वह यहाँ जिन्दा रहने की दशा में पांचसो पाड़ों का सदैव वध करता है और मरने पर घोर नरक में जानेवाला है इस लिये उसको जीने तथा मरने दोनों दशाओं में कोई लाभ नहीं होने से म मर म जीव कहा। ___यह सर्व हालत सुन कर राजा आश्चर्य से भरा हुआ फिर जिनेश्वर को बन्दना कर बोला कि-हे स्वामी ! मेरी नरकगति नहीं हो इस लिये उसके निवारण का उपाय बतलाइये । प्रभुने उत्तर दिया कि-पहिले मिथ्यात्वपन में जो नारकी का आयुष्य बांधा है उसको तो तुझे अवश्य ही भोगना पड़ेगा-उसकी दूसरी कोई भी प्रतिक्रिया नहीं है। इस प्रकार कहने पर भी श्रेणिक के अधिक आग्रह करने पर उसको बोध देनेके लिये प्रभुने कहा कि-हे राजा! तूं तेरी कपिला नामक दासी के साथ से मुनि को दान दिलावे अथवा सदैव पांचसो पशु के वध करनेवाले कालसौकरिक को एकदिन के लिये हिंसा कर्म करने से रोके तो दुर्गति में जाने से बच सकता है। इसको सुन कर राजाने यह सोच कर कहा कि यह कार्य तो मेरे अधीन ही है। बाद अपने नगर की ओर चला गया।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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