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________________ : ३२ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : प्रवृत्ति ) होता है, ग्रंथि का छेद करे तक दूसरा करण ( अपूर्व ) होता है और वह जीव समकित के समीप पहुंचे अर्थात् सम्यक्त्व प्राप्ति के समय तीसरा अनिवृत्तिकरण प्राप्त होता है । यहां मिथ्यात्व की स्थिति के दो विभाग होते हैं । उसमें से पहले अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थिति को भोगकर दूसरी उपशमन की हुई स्थिति में अंतरकरण के प्रथम समय जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । कहा भी है किः— आन्तमौहूर्तिकं सम्यग्दर्शनं प्राप्नुवन्ति यत् । निसर्गहेतुकमिदं, सम्यक् श्रद्धानमुच्यते ॥१॥ भावार्थ:- मध्य के अन्तर्मुहूर्त में जो समकित प्राप्त होता है वह सम्यक् श्रद्धावाला निसर्ग समकित कहलाता है। गुरुपदेशमालंब्य, प्रादुर्भवति देहिनाम् । यत्तु सम्यग्श्रद्धानं, तत्स्याद्धिगमजं परम् ॥२॥ भावार्थ:- गुरु के उपदेश को अवलंबन करने से ( सुनने से ) जो प्राणियों को सम्यक् श्रद्धा उत्पन्न होती है उसे अधिगमज नामका दूसरा समकित कहते हैं । अधिगम समकित पर कृषीबल का दृष्टान्तं १ यह दृष्टान्त संप्रदाय से चला आता है ।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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