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________________ ब्याख्यान ६१ : ५६७ : आदि पाता हैं ऐसा व्यवहार से समझना; निश्चय से तो पूर्व कथित सर्व धर्म से युक्त और अच्छेद्य, अभेद्य आदि गुणयुक्त है । इस प्रकार सर्वत्र समकिती को ज्ञान होता है परन्तु दूसरे को वैसा ज्ञान नहीं होता, अज्ञान होता है। महाभाष्य में कहा है किसदसदविसेसणाओ भवहेउ जहडिओवलंभाओ। नाणफलाभावाओ मिच्छदिहिस्स अन्नाणं ॥१॥ भावार्थ:--मिथ्यात्वी का ज्ञान सत् , असत् आदि विशेष धर्म से युक्त ऐसे वस्तु के परिज्ञान रहित होता है, भव का हेतुभूत अर्थात् वह सत्तावन बंध के हेतु को यथार्थरूप से नहीं जानता, यहच्छापन-स्वेच्छाचारीपन है और ज्ञान का फल जो विरति का अभाव है, अतः मिथ्यादृष्टि के ज्ञान को अज्ञान ही समझना चाहिये । __अब समकित के साथ जो बुद्धि के आठ गुण होते है उनके विषय में कहते हैं कि अष्टौ बुद्धिगुणाः सन्ति, शुश्रूषाश्रवणादयः । सम्यक्त्ववान् तदाढ्यः, स्यादित्याहितं चिदात्मभिः ॥१॥
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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