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________________ : ५६० : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : भावार्थ:-परमार्थसंस्तव, सुदृष्टि परमार्थसेवना, व्यापन्न दर्शनी का वर्जन तथा कुदर्शनी का वर्जन-ये चार समकित की सद्दहणा है (इन चारों सद्दहणा का वर्णन दृष्टान्त सहित पहले स्थंभ में आ चुका है)। ___अतः मिथ्यादृष्टि की सेवा करने से आत्मगुण की हानि होती है-पतन होता है। कहा है किजं तवसंयमहीणं, नियमविहुणं च बंभपरिहीणं । तं सेलसमं अयतं, बुधुतं बोलए अन्नं ॥१॥ ___ भावार्थ:--जो तप संयम से रहित हैं, नियम रहित हैं, और ब्रह्मचर्य से रहित हैं, ऐसे अयत-अविरति जीव पत्थर के वहाण सदृश होने से स्वयं डूबते हैं और दूसरों को भी डूबाते हैं। ___इस पर श्रीआवश्यकनियुक्ति की बृहवृत्ति में कहा हुआ एक दृष्टान्त बहुत उपयोगी है । वह इस प्रकार है किकिसी साधु-समुदाय में एक साधु श्रमणगुण रहित था । वह सदैव गोचरी आदि की आलोचना के समय बारंबार अपनी आत्मा की निन्दा करता हुआ प्रतिक्रमण करता था। उसको देख कर कई मुनि उसकी प्रशंसा किया करते थे। एक बार कोई सम्यक् ज्ञानवाला संवेगी साधु वहां आया जिन्होंने उसके प्रपंच को जानकर दूसरे साधुओं से कहा कि-एक समृद्धिवाला गृहस्थ हर वर्ष अपने घर में सर्व रत्नादिक भर
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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