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________________ व्याख्यान ५९ : ५४५ : . जुड़ सकता, अतः यहां से एक पग भर भी आगे न बढ़ । कहा है किजलधूलीधरित्र्यादि-रेखावदितरे नृणाम् । परं पाषाणरेखेव, प्रतिज्ञा हि महात्मनाम् ॥१॥ भावार्थः-सामान्य जनों की प्रतिज्ञा जल, धूल और पृथ्वी आदि पर की हुई रेखा के समान है (तुरन्त भंग होनेवाली है) परन्तु महात्माओं की प्रतिज्ञा तो पत्थर की रेखा के समान होती है अर्थात् उसका भंग हो ही नहीं सकता है। ____ अपितु हे कोकाश ! व्रत के उल्लंघन का फल तो कटु द्रव्य के आस्वाद की तरह अभी प्राप्त हो गया है, अतः उसी ही किली से यदि लोट सकता हो तो लौटा ले; अन्यथा यहीं पर उतर पड़ना योग्य है । यह सुन कर राजा की दृढ़ता की बारंबार प्रशंसा करता हुआ कोकाश गरुड़ को वापस लौटाने का प्रयास करने लगा इतने में तो उस गरुड़ के दोनों पंख मिल गये और वह नीचे गिर पड़ा । परन्तु उत्तम भाग्य के योग से वह गरुड़ एक सरोवर में गिरा इससे किसी को कोई चोट न पहुंची। फिर राजा, रानी और कोकाश गरुड़ सहित सरोवर के किनारे पर आये । उसके समीप ही . कांचनपुर नगर को देख कर कोकाशने राजा को सलाह
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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