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________________ : ५४० : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : . भावार्थः-लवण सदृश कोई रस नहीं, विज्ञान (कलाहुन्नर) सदृश कोई बांधव नहीं, धर्म समान दूसरा कोई निधि (भंडार) नहीं और क्रोध समान दूसरा कोई वैरी नहीं है। - एक बार कोकाश को साथ लेकर राजा विष्णु के सदृश अपनी रानी सहित गरुड़ पर आरुढ़ होकर आकाशमार्ग में चला । अनेकों देशों का उल्लंघन कर भरुचपुर के ऊपर आया तो राजाने कोकाश से उस नगर का नाम पूछा । कोकाशने गुरु के मुंह से पूर्व वृत्तान्त सुना था इससे कहा कि-हे स्वामी ! इस नगर का नाम भरूच है। इस पुर में पहिले श्रीमुनिसुव्रत स्वामीने साठ योजन दूर स्थित प्रतिष्ठानपुर से एक रात्रि में ही आकर यज्ञ में होमने के लिये तैयार किये हुए अश्व को, जो उनका पूर्व भव का मित्र था, प्रतिबोध कर जैनधर्म में दृढ़ किया था । जिससे वह अश्व मर कर सौधर्म देवलोक में सामानिक देवता हुआ । उसने तुरन्त ही अवधिज्ञानद्वारा पूर्व की हकीकत जान ली, अतः वह यहां आया और जिनेश्वर के समवसरण के स्थान पर उसने जिनप्रासाद बना. उस में प्रभु का बिंब पधरा उसके सन्मुख अपनी अश्वमूर्ति खड़ी की और अश्वावबोध नामक तीर्थ की स्थापना की । इस प्रकार बातें करते हुए और विविध देशों का अवलोकन करते हुए वे लंका नगरी पर आये तो राजाने
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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