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________________ : ५१६ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर । होने से जन्म, जरा, व्याधि, मरण, अरति, चिन्ता और उत्कृष्टता आदि निाशेष (समग्र) बाधा से रहित है, अत: (यह हेतु है) इस प्रकार के उत्कृष्ट मुनि के सदृश (यह उदाहरण है ) अब सांसारिक सुख की दुःखरूप से घटना करते हैं-इस संसार में पुष्पमाला, चन्दन, स्त्रीसंभोग आदि से उत्पन्न हुए सुख तथा चक्रवर्ती आदि की पदवी का पुण्यफल का सुख निश्चय से देखा जाय तो दुःख ही है । (प्रतिज्ञा) वह सुख परिणाम में विनाशी होने से तथा उसी प्रकार वह सुख कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ होने से (हेतु) जैसे खुजालवाले प्राणी को खुजालने का सुख तथा रोगी मनुष्य को अपथ्य आहार का सुख परिणाम में दुःखरूप है (उदाहरण) सांसारिक सुख दुःखरूप ही है । कहा है किनग्नः प्रेत इवाविष्टः, क्वणन्तीमुपगुह्य ताम् । गाढायासितसर्वांगः, कः सुधी रमते किल ॥१॥ ___ भावार्थः-नग्न हो कर प्रेत से सताई हुई सदृश कामाविष्ट हो कर सीत्कार शब्द करती हुई स्त्री का आलिंगन कर सर्व अंगों को अत्यंत प्रयास करता पुरुष उसके साथ जो क्रीड़ा करता है वह क्रीड़ा कौन बुद्धिमान् करने को तैयार होगा ? क्योंकि उस में क्या सुख है ? अर्थात् कुछ नहीं । मात्र मोहाधीनपन से दुःख का अनुभव करता हुआ भी उसे सुख ही समझता है। अपितु कहा है कि
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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