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________________ व्याख्यान ५५ :४८७ : कारणभूत हैं वे वे वस्तुएँ होती हैं । जैसे घट कार्य और उसका कारण मिट्टी का पिंड वे जैसे होनेवाली वस्तुए हैं इसी प्रकार यह आत्मा कारण और सुख दुःखादिक उसके कार्य हैं, इस से आत्मा की सिद्धि होती है। जिनकी ऐसी सम्यम् बुद्धि हो उन में सम्यक्त्व का प्रथम स्थानक समझना चाहिये । इस प्रकार जिसने जीव का अस्तित्व माना उसे प्रथम "अस्तिस्थान" कहते हैं । अब जीव का दुसरा नित्यत्वस्थान कहा जाता हैं-- द्रव्यस्यापेक्षया नित्यो, हि व्ययोत्पादवर्जितः । पर्यायापेक्षयाऽनित्यः, सद्भावेन च शाश्वतः ॥१॥ भावार्थः-द्रव्य की अपेक्षा से नाश और उत्पत्ति रहित आत्मा नित्य है, पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है, और सद्भावद्वारा वह आत्मा शाश्वत है । - यह आत्मा द्रव्य नय की अपेक्षा से विनाश और उत्पत्ति रहित है अर्थात् आत्मा कदापि न तो उत्पन्न ही होता है न उसका विनाश ही होता है। यहां पर यदि कीसी को शंका उत्पन्न हो कि-इतना कहने मात्र से तो आचार्यने आत्मा का नित्यपन एकान्त रूप से अंगीकार किया है तो इसके निराकरण के लिये उत्तरार्ध में कहते हैं कि-पर्याय नय की अपेक्षा से आत्मा अनित्य है और सत्तारूप से शाश्वत है क्योंकि पूर्व किये हुए तथा कराये हुए का इसको स्मरण
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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