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________________ : २२ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : यहां प्रथम श्लोक में ' अतिशयान्वितम् (अतिशयों से युक्त ) ' ऐसा जो जिनेश्वर का विशेषण दिया गया है उस ( अतिशयों) का वर्णन टीकाकारने अत्यन्त विस्तार से किया है । यह भाव मंगलमय, सर्व विघ्नविनाशक एवं सर्व कल्याणकारक होने से किया गया जो मनुष्य जिनेश्वर के अतिशयों के इस वर्णन को निरंतर प्रातःकाल सुनते हैं वे समग्र समृद्धि युक्त होते हैं । इत्यब्ददिन परिमितोपदेशप्रासादग्रन्थस्य वृत्तौ जिननमस्कारकारणातिशयवर्णनरूपं प्रथमं व्याख्यानम् ॥ १ ॥ व्याख्यान २ समकित यहां प्रथम सर्व समृद्धि के निदानरूप, सर्व गुणों में मुख्य और समस्त धर्मकार्यों के मूल कारणरूप सम्यग्दर्शन का स्वरूप कहा जाता है: (( ' देवत्वधीर्जिनेष्वेव, मुमुक्षुषु गुरुत्वधीः । धर्मधीराईतां धर्मे, तत्स्यात्सम्यक्त्वदर्शनम् | १|” भावार्थ:- रागद्वेष को जीतनेवाले जिन कहलाते हैं । वे जिन नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार प्रकार के होते हैं । उन जिनेश्वरों के प्रति देवबुद्धि रखना तथा भव (संसार) से अपनी आत्मा को मुक्त करने की इच्छा
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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