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________________ :४७८ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : उस मूल के निश्चल होने पर ही स्वर्ग मोक्षादिक फल प्राप्त हो सकते हैं । यह पहली भावना है । समकित मोक्षरूप पुर का द्वार है क्योंकि समकितरूप द्वार बिना मोक्षपुर में प्रवेश नहीं किया जासकता । सामान्य नगर में भी बिना दरवाजे के प्रवेश नहीं हो सकता । यह दूसरी भावना है । जिनेश्वरप्रणीत धर्मरूपी वाहन का समकित ही प्रतिष्ठान (निश्चल पीठ) है । इस प्रतिष्ठान के निश्चल होने पर ही धर्मरूपी यान चिरकाल तक रह सकता है, यह तीसरी भावना है। समकित विनयादि गुणों का आधार (अवस्थान) है। बिना इस आधार के विनयादि गुण स्थिर नहीं रह सकते यह चतुर्थ भावना है । समकित धर्मरूपी अमृत का पात्र है क्यों. कि बिना इस पात्र के धर्मरूप अमृत नहीं रह सकता वह पांचवीं भावना है तथा समकित ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपी रत्नों का निधान (भंडार) है । बिना निधान के जिस प्रकार अन्य रत्न सुरक्षित नहीं रह सकते इसी प्रकार बिना समकित के ज्ञानादिक तीनों रत्नों का सुरक्षित रहना भी कठिन है । यह छट्ठी भावना है । इस प्रकार छ भावनाओं को भाना चाहिये । इस विषय में विक्रमराजा की कथा बतलाई जाती है । विक्रमराजा की कथा ' कुसुमपुर के हरितिलक राजा के गौरी नामक रानी और विक्रम नामक पुत्र था । उस कुमार के युवा होने पर राजाने
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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