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________________ श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : साधुवेष धारण कराया और नमिराजा प्रव्रज्या ग्रहण कर घर से निकल पड़े । 1 नमिराजा के आश्चर्यकारक प्रतिबोध से रंजित हुए सौधर्मेन्द्र अवधिज्ञान से उनके स्वरूप को जानकर ब्राह्मण का वेष बना नमिराजर्षि के पास आकर कहने लगा कि - हे मुनि ! तुम्हारे नगर में लोग बहुत आक्रंद कर रहे हैं, और तुम्हारे नगर में अग्नि प्रज्वलित हो रही है । प्रव्रज्या दया पालने के लिये ग्रहण की जाती है, अतः पूर्वापर विरोधजनक तुम्हारा यह चारित्र अयोग्य है सो पहले सब को सुखी बना, फिर व्रत ग्रहण करना चाहिये । अपितु तुम जरा पीछे फिर कर देखो तो सही कि : ४६८ : " एष वन्दिश्च वातश्च तवैव दहति गृहम् । अन्तःपुरं च तन्नाथ, त्वं किमेतदुपेक्षसे ॥ १ ॥ भावार्थ:- देखिये यह अग्नि और यह वायु तुम्हारे महल तथा अन्तःपुर को ही जला कर भस्म कर रही है और तुम उसके नाथ होते हुए भी उपेक्षा दृष्टि से ऐसा होते हुए क्यों कर देख रहे हो ? इस प्रकार शक्रद्वारा कहे जाने पर बुद्ध मुनिने उत्तर दिया कि - सुखं वसामि जीवामि, येन मे नास्ति किञ्चन । मिथिलानगरीदाहे, न मे दहति किञ्चन ॥ १ ॥
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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