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________________ . श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : पांचवे देवलोक में उत्पन्न हुआ युगवाहु देव भी अवविज्ञान से अपना पूर्व भव जान कर वहां आ पहुंचा और प्रथम मदनरेखा को वन्दना कर बाद में मुनि को वन्दना की । यह देख कर मणिप्रभ विद्याधरने उससे कहा कितुम्हारे विवेकी होते हुए भी प्रथम इस स्त्री को वन्दना कर बाद में मुनि को वन्दना करने का क्या कारण है ? ऐसा अयोग्य आचरण तुमने क्यों कर किया ? ऐसा कह कर उसको उपालंभ दिया तो चारणश्रमण मुनिने उस देव के पूर्व भव का स्वरूप मणिप्रभ को सुना कर कहा कि-हे विद्याधर राजा! धर्माचार्यमनुस्मृत्य, तूर्णमत्रेयिवानयम् । युक्तं मुनि विहायादौ, ननामैनां महासतीम् ॥१॥ भावार्थ:---यह देव अपने धर्माचार्य का स्मरण कर शीघ्रतया यहां आया है, अतः मुनि का त्याग कर इसने जो प्रथम इस महासती को नमन किया है यह युक्त ही है क्योंकियतिना श्रावकेणाथ, योऽर्हद्धर्मे स्थिरीकृतः । स एव तस्य जायेत, धर्माचार्यों न संशयः॥२॥ भावार्थ:-मुनि अथवा श्रावक जिसने जिसको जैनधर्म में स्थिर किया हो वह ही उसका धर्माचार्य कहलाता है । इस में लेशमात्र भी संशय नहीं है।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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