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________________ श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : उस रुधिर में उत्पन्न हुए कृमि के रुधिर से वह वस्त्र रंगने लगा । इस प्रकार बारंबार रुधिर निकालने से उसको पांडु रोग उत्पन्न हो गया तिस पर भी उसने शील का खंडन नहीं किया । : ४४८ : कुछ समय पश्चात् भट्टा का भाई धनपाल व्यापार के लिये बब्बर कुल में गया । उसने फिरते फिरते अपनी बहिन को देख कर पहचान लिया और कारुक को बहुतसा द्रव्य दे उसको उससे छुड़ा उसके सहित वह अपने नगर को लौट आया । भट्टा के पतिने उसका सर्व वृत्तान्त सुन उसको अपने घर ले गया और सर्व गृहकार्य की स्वामिनी बनाया । भट्टाने भी अपने कोप का अत्यन्त कठोर फल अनुभव कर लेने से अब प्राणान्त तक कोप नहीं करने की प्रतिज्ञा की । एक बार उस नगर के उपवन में मुनिपति नामक सुनिने कायोत्सर्ग किया। उस समय किसी प्रकार की अनि से उस मुनि का शरीर जल गया। जले हुए मुनि के शरीर की चिकित्सा (औषध) करने निमित्त कुंचिक श्रेष्ठीने अन्य दो मुनियों को लक्षपाक तेल लाने के लिये अचंकारी के घर भेजा । उन मुनियोंने उसके घर पर जाकर तैल की याचना की, तो अच्चकारीने हर्षित हो दासी को आज्ञा दी कि हे दासी ! तैलका घड़ा ले आ । उसी समय स्वर्ग में इन्द्रने सभा समक्ष अचकारी की प्रशंसा की कि इस समय अचं कारी भट्टा के सदृश पृथ्वी पर कोई भी क्षमावान नहीं है ।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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