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________________ व्याख्यान ४९ : : ४४३ : करना है ? अब तो प्रसमतापूर्वक यमराज का अतिथि होना ही योग्य है। इस प्रकार उस बालक के वचन सुन कर राजाने कहा कि-हे बालक ! मैं तुझे छोड़ता हूँ, तुझ को मारनेवाला मेरा शत्रु होगा, तू सुख से जीवित रह । मुझे इस नगर आदि से कोई प्रयोजन नहीं है। ऐसा कह कर राजाने सम्पूर्ण नगर में अपने सेवको से इसकी घोषणा कराई। इस प्रकार राजा के धैर्य को देख कर शीघ्र ही एक देवने प्रकट हो कर कहा कि-हे राजा ! शकद्वारा तेरे धैर्य की प्रशंसा सुन कर उस की परीक्षा करने के लिये मैंने इस दरवाजे को तीन बार तोड़ा है परन्तु तेरे धैर्य को देख कर मैं सन्तुष्ट हो गया हूँ। ऐसा कह कर राजा को प्रणाम कर दरवाजे को जैसा का तेसा बना राजा की प्रशंसा करता हुआ वह देव स्वस्थान को लौट गया । सुधर्म राजाने सर्व जनों के आग्रह पर भी हिंसायुक्त वाक्य ग्रहण न कर वैराग्य से चारित्र ग्रहण कर अन्त में मोक्षसुख को प्राप्त किया । इत्युपदेशप्रासादे चतुर्थस्तंभे एकोनपंचाशत्तम व्याख्यानम् ॥ ४९ ॥ .
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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