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________________ : ४२८ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : दक्षिण्येन क्षितीशस्य, बलाद्वा वाक्यतोऽथवा । दृष्टीनां नमस्कारो, राजाभियोग उच्यते ॥१॥ भावार्थ:- राजा की दाक्षिण्यताद्वारा उसके बलात्कार से अथवा उसके वचन से कुदृष्टियों ( मिथ्यात्वियों) को जो नमस्कार करना पड़ता है उसे राजाभियोग कहते हैं । इस प्रसंग पर निम्नलिखित कार्तिक श्रेष्ठी का दृष्टान्त बतलाया जाता हैं कार्तिकश्रेष्ठी का दृष्टान्त पृथ्वी भूषण नगर में श्रीमुनिसुव्रतस्वामी से धर्म का प्रतिबोध प्राप्त करनेवाला कार्तिक नामक श्रेष्ठी रहता था । - एक बार उस नगर में गैरिक नामक तपस्वी आया । वह सदैव मासोपवास कर पारणा करता था । कार्तिक श्रेष्ठी के अतिरिक्त अन्य सब उसके भक्त हो गये, अतः वह तापस कार्तिक श्रेष्ठी पर अत्यन्त क्रोधित हुआ । एक बार राजाने उस गैरिक तपस्वी को अपने यहां पारणा करने के लिये आमंत्रण किया । इस पर उसने उत्तर दिया कि - हे राजा ! यदि कार्तिक श्रेष्ठी मुझे खाना खिलाये तो मैं तुम्हारे यहां भोजन करने को तैयार हूँ । राजाने यह बात स्वीकार कर श्रेष्ठी को बुलाकर कहा कि मेरे घर पर तू गैरिक को खाना खिला । श्रेष्ठीने उत्तर दिया कि - हे राजा ! आप की आज्ञा -
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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