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________________ व्याख्यान ४५ : : ४०९ : करनेवाली वेश्याओं के हाव, भाव और कटाक्षपूर्वक नृत्य, गान आदि कराये जाय, तथा सर्व इन्द्रियों को सुख उत्पन्न करनेवाले प्रेक्षण स्थान स्थान पर रचाये जाय । " राजा की आज्ञानुसार सर्व नगर को अनेक प्रकार की ध्वजा वगेरे और अनेक प्रकार के नाटक आदि से मनोहर बनाया गया। तत्पश्चात् जयश्रेष्ठी के हाथ में तैल से परिपूर्ण पात्र दिया गया । वह केवल पात्र में ही एक टक देखता हुआ चलने लगा । यद्यपि वह संगीतादिक इन्द्रियों के विषयों का अत्यन्त रसिक था। उसके दोनों ओर राजा के सुभट नंगी तलवार लिये चल रहे थे और धमकी देते जाते थे कि-इस पात्र में से एक बिन्दु तैल भी नीचे गिरा नहीं कि शीघ्र ही इस खड्गद्वारा तेरा शिर धड़ से अलग कर दिया जायगा।" इस प्रकार सम्पूर्ण शहर में घूमा कर वे सुभट उसको वापस राजा के पास ले गये । उस समय राजाने हँसी करते हुए कहा कि-" हे श्रेष्ठी ! मन और इन्द्रियें तो अति चपल होती हैं फिर तूने उसको किस प्रकार रोका ?" श्रेष्ठीने उत्तर दिया कि-" हे स्वामी ! मृत्यु के भय से रोकी गई ।" राजाने कहा कि-" जब एक ही भव में मृत्यु के भय से तूने प्रमाद का त्याग कर दिया तो फिर अनन्ता मृत्यु के भय से भयभीत हुए साधु आदि उत्तम पुरुष प्रमाद किस प्रकार कर सकते है ? अतः हे श्रेष्ठी मेरा हितकर वचन सुन
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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