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________________ : ३८८ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : किन्तु वह हमसे नहीं उतरता है, अतः दंड से काम निकालना अयुक्त है " ऐसा विचार कर साम (मीष्ट) वाक्योंद्वारा उसको लुभाते हुए अप्सराओंने कहा कि-" हे उत्तम पुरुष! हमारे वस्त्र दे दे।" राजकुमारने अन्दर से ही उत्तर दिया कि-" प्रचंड वायुद्वारा तुम्हारे वस्त्र हर लिये गये होगें, अतः उसके पास जाओं।" यह सुन कर उसके साहस से सन्तुष्ट होकर अप्सराओंने कहा कि-" हे वत्स ! हम तुम्हारे साहस को देख कर प्रसन्न हो गई हैं, अतः यह खगरत्न और यह दिव्य कंचुक हम तुम्हें देती हैं जिन को तू ग्रहण कर और हमारे वस्त्र हम्हें लौटा दे ।" यह सुन कर राजपुत्रने द्वार खोल कर उनके वस्त्र उनको लोटा दिये और क्षमा याचना की। देवीयों भी वे दोनों चिजें उसे देकर स्वस्थान को लौट गई। __तत्पश्चात् वह कुमार वहां से आगे बढ़ा तो मार्ग में एक निर्जन नगर देखा । उस नगर में कौतुकवश फिरता फिरता वह राजगृह के समीप जा पहुंचा और उसकी सातवीं भूमिका पर चढ़ गया जहां उसने कमल सदृश नैत्रवाली एक सुन्दर कन्या को देखा । उसके दिव्य स्वरूप को देख कर कुमारने विचार किया किकिमेषा प्रथमा सृष्टिविधात्रा रक्षिता ध्रुवम् । एतां दृष्ट्वा यथा नारीमन्या नारीः सृजाम्यहम् ॥१॥
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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