SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 400
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ : ३७१ : यथाप्रवृतिकरण के कारण शुभ कर्म के उदय से वाराणसी पुरी में महाबाहुक नामक राजा हुआ। वह राजा एक बार अपने महल की खिड़की के पास खड़ा हुआ था कि उसने किसी मुनि को जाता हुआ देख कर इहापोह करने से उस को जाति स्मरण ज्ञान प्राप्त हो गया और उसने अपने सातों भवों को देखा, अतः विचार करने लगा कि अहो ! मैं उस मुनि के पाप का कारण हूँ । एसा विचार कर उस मुनि की परीक्षा के लिये उसने एक लाख स्वर्णमुद्रा देने की घोषणा कराई | वह श्लोक इस प्रकार था - विहगः शबरः सिंहो, द्वीपी संद्ः फणी द्विजः । इस अर्द्ध श्लोक को पूर्ण करने के लिये सब लोग निरन्तर चलते फिरते उसको बोलते रहते थे परन्तु कोई भी उस श्लोक की पूर्ति नहीं कर सके । अन्त में वे ही राजर्षि घूमते फिरते वाराणसी नगरी में आये और ग्राम के बाहर किसी ग्वाल के मुंह से उस अर्द्ध श्लोक को उच्चारण करते हुए सुना अतः क्षणवार विचार कर उस मुनिने इस प्रकार उसका उत्तरार्द्ध पूर्ण किया कि— येनामी निहनाः कोपात्, स कथं भविता हहा ॥ व्याख्यान ४० : यह उत्तरार्द्ध सुन कर उस ग्वालने राजा के पास जा उस श्लोक की पूर्ति की और धृष्टतापूर्वक राजा से कहा कि - यह समस्या मैंने ही पूर्ण की है । यह सुन कर राजाने
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy