SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 395
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्याख्यान ४० वां पांचवा तीर्थसेवारूप समकित का भूषण तीर्थानां सततं सेवा, संगः संविज्ञचेतसाम् । कथिता तीर्थसेवा सा, पंचमं बोधिभूषणम् ॥१॥ भावार्थ:--निरन्तर तीर्थसेवा करना तथा संवित चित्तवाले मुनियों का संग करना तीर्थसेवा नामक पांचवा समकित का भूषण कहलाता है। जिससे संसाररूप सागर तैरा जासके उसे तीर्थ कहते है। श्रीशत्रुजय, अष्टापद आदि जो तीर्थ हैं उनकी निरन्तर सेवा अर्थात् यात्रा करनी चाहिये । संविज्ञ चित्तवाले साधुओं का संसर्ग करना चाहिये । कहा भी है किसाधूनां दर्शनं पुण्यं, तीर्थभूता हि साधवः । तीर्थः फलति कालेन, साधवस्तु पदे पदे ॥१॥ भावार्थ:-साधुओं का दर्शन करना पुन्यरूप है क्यों कि-साधु जंगम तीर्थरूप है। स्थावर तीर्थ तो काल के आने पर फलदायक होता हैं परन्तु जंगम तीर्थ साधु तो पद पद पर फलदायक है । इस प्रकार सतीर्थ की सेवा से बड़ा भारी लाभ होता है परन्तु अप्रशस्त तीर्थ की सेवा से कोई लाभ नहीं होता। इस पर एक दृष्टान्त कहा गया है कि
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy